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360 :: मूकमाटी-मीमांसा
५. “पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।” (पृ.५०-५१) ६. “निर्ग्रन्थ-दशा में ही/अहिंसा पलती है।" (पृ. ६४) ७. “सहधर्मी सजाति में ही/वैर वैमनस्क भाव/परस्पर देखे जाते हैं!"(पृ.७१) ८. "सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और
असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा!" (पृ. ८३) ९. "सुख या दु:ख के लाभ में भी/भला छुपा हुआ रहता है,
देखने से दिखता है समता की आँखों से।” (पृ. ८७) १०. “मन की छाँव में ही/मान पनपता है।" (पृ. ९७) ११. “ललाम चाम वाले/वाम-चाल वाले होते हैं।" (पृ. १०१) १२. “दम सुख है, सुख का स्रोत ।” (पृ. १०२) १३. “मद दुःख है, सुख की मौत !" (पृ. १०२) १४. “पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही/मोह का परिणाम है।” (पृ. १०९) १५. "रसना ही/रसातल की राह रही है।" (पृ. ११६) १६. “आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) १७. "परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में।" (पृ. १४२) १८. “एक-दूसरे के सुख-दुःख में/परस्पर भाग लेना
सज्जनता की पहचान है।" (पृ. १६८) १९. “प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।" (पृ. १७२) २०. "तप के अभाव में ही/तपता रहा है अन्तर्मन यह
अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से।” (पृ. १७६) २१. “पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना ___ मोह-मूर्छा का अतिरेक है।” (पृ. १८९) २२. “सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में।" (पृ. १९०) २३. “अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।” (पृ. १९२) २४. “प्राय: पुरुषों से बाध्य होकर ही
कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को।" (पृ. २०१) २५. “पर-धन कंचन की गिट्टी भी/मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में!" (पृ. २१२) २६. “स्त्री और श्री के चंगुल में फंसे/दुस्सह दुःख से दूर नहीं होते कभी।" (पृ.२१४) २७. "हिंसा की हिंसा करना ही/अहिंसा की पूजा है"प्रशंसा।" (पृ. २३३) २८. "माँ-पृथिवी की प्रतिष्ठा/दृढ़ निष्ठा के बिना/टिक नहीं सकती।"(पृ. २१२) २९. “अर्थ का अभाव कोई अभाव नहीं है।" (पृ. २५३)