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356 :: मूकमाटी-मीमांसा
अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से।” (पृ. १७६) हिंसा-अहिंसा : प्रस्तुत महाकाव्य में हिंसा और अहिंसा की व्याख्याएँ मौलिक हैं । गम्भीर चिन्तन की प्रतीक हैं वे :
"जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है। अर्थ यह हुआ कि/ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और
निर्ग्रन्थ दशा में ही/अहिंसा-पलती है ।" (पृ. ६४) अनेकान्त-स्याद्वाद : अनेकान्त में समाहित होता है भाव 'भी'- सबकी गरिमा का, और एकान्तवाद में अकेलेपन का- 'ही' का । 'भी' और 'ही' के माध्यम से कवि ने इस प्रकार कहा है :
" 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । ...'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/ भी देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'हो' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है।
'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है।" (पृ. १७२-१७३) अर्थ और परमार्थ : अर्थ और परमार्थ साथ-साथ नहीं चलते । अर्थ-लिप्सु परमार्थ से दूर रहते हैं। आचार्यश्री का विचार है :
"अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।" (पृ. १९२) अर्थाभिलाषी वीतराग देव से अर्थ माँगने में नहीं चूकता किन्तु कवि ने इस याचना को अच्छा नहीं माना है। उन्होंने अर्थ को इतना महत्त्व नहीं दिया है जितना परमार्थ को :
"अर्थ का अभाव कोई अभाव नहीं है/और
प्रभु से अर्थ की माँग करना भी/व्यर्थ है ना !" (पृ. २५३) साधना-रीति : साधना के दो रूप दिखाई देते हैं-बाह्य और आभ्यन्तरिक । बाह्य साधना जन्मती है दमन से । इसमें मन का योगदान नहीं रहता । फलस्वरूप साधक की साधना से प्रीति नहीं होती। क्रियाओं में प्रदर्शन होता है। इस सन्दर्भ में कवि ने सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया है :
"मात्र दमन की प्रक्रिया से/कोई भी क्रिया/फलवती नहीं होती है, ...प्रकृति से विपरीत चलना/साधना की रीत नहीं है।
बिना प्रीति, विरति का पलना/साधना की जीत नहीं।” (पृ. ३९१) साधक सहता है सब कुछ, सहर्ष । आपदाओं से करता है संघर्ष । आचार्यश्री का अनुभव इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है :
“सर्व-सहा होना हो/सर्वस्व को पाना है जीवन में।" (पृ. १९०) निमित्त-उपादान : कवि ने उपादान को कार्य का जनक नहीं माना है। उसके ऐसा होने में उन्होंने निमित्त की अनिवार्यता पर बल दिया है। कवि के विचार हैं :