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पर के प्रति नवनीत / मृदु और / पर की पीड़ा को अपनी पीड़ा का प्रभु की ईडा में अपनी क्रीड़ा का / संवेदन करता हो ।
मूकमाटी-मीमांसा :: 355
पाप - प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह / पवन - सम नि:संग / परतन्त्र - भीरु, दर्पण - सम दर्प से परीत/ हरा-भरा फूला - फला / पादप-सम विनीत । नदी - प्रवाह - सम लक्ष्य की ओर / अरुक, अथक गतिमान । मानापमान समान जिन्हें, / योग में निश्चल मेरु- सम, उपयोग में निश्छल धेनु- सम, / लोकैषणा से परे हों / मात्र शुद्ध-तत्त्व की गवेषणा में परे हों;/छिद्रान्वेषी नहीं / गुण-ग्राही हों,/ प्रतिकूल शत्रुओं पर कभी बरसते नहीं, / अनुकूल मित्रों पर / कभी हरसते नहीं, / और ख्याति - कीर्ति-लाभ पर / कभी तरसते नहीं ।
क्रूर नहीं, सिंह- सम निर्भीक / किसी से कुछ भी माँग नहीं भीख,
प्रभाकर-सम परोपकारी / प्रतिफल की ओर / कभी भूल कर भी ना निहारें, निद्राजयी, इन्द्रिय-विजयी / जलाशय - सम सदाशयी
मिताहारी, हित- मितभाषी / चिन्मय - मणि के हों अभिलाषी;
निज- दोषों के प्रक्षालन हेतु / आत्म-निन्दक हों, पर-निन्दा करना तो दूर, / पर- निन्दा सुनने को भी
जिनके कान उत्सुक नहीं होते / मानो हों बहरे !
यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी / होकर भी, / अपनी प्रशंसा के प्रसंग में
जिनकी रसना गूँगी बनती है । / सागर - सरिता - सरवर - तट पर / जिनकी
शीत-कालीन रजनी कटती / फिर / गिरि पर कटते ग्रीष्म-दिन दिनकर की अदीन छाँव में ।" (पृ. ३०० - ३०२ )
परीषह और उपसर्ग : साधना के क्षेत्र में परीषहों का अपना महत्त्व है । कवि ने स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति में परीषह और उपसर्गों का विशेष महत्त्व बताया है। इस सन्दर्भ में ध्यातव्य हैं निम्न पंक्तियाँ :
" परीषह - उपसर्ग के बिना कभी / स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी / त्रैकालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६)
- साधना के क्षेत्र में अग्नि परीक्षा - सी होती है । उसमें अनेक परीषह और उपसर्ग आते हैं। जो साधक
उन्हें भेद - विज्ञान का सहारा लेकर सह लेता है, वे मुक्त हो जाते हैं । कवि ने लिखा है :
" अग्नि- परीक्षा के बिना आज तक / किसी न ही भविष्य में मिलेगी ।" (पृ. २७५ )
भी मुक्ति मिली नहीं,
तप : कर्म-निर्जरा तप से ही होती है। कर्म तब तक साथ नहीं छोड़ते जब तक उन्हें तप रूपी अग्नि का स्पर्श नहीं होता । तप का अभाव संसार का सद्भाव है। इस सम्बन्ध में पढ़िए कवि के विचार :
" तप के अभाव में ही / तपता रहा है अन्तर्मन यह