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352 :: मूकमाटी-मीमांसा
आस्था की आराधना में/विराधना ही सिद्ध होगी!" (पृ. १२) प्रस्तुत महाकाव्य में व्यवहृत आस्था और ज्ञान या बोधि शब्द आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के नाम से वर्णित हैं। इनमें आचार्यश्री द्वारा प्रणीत आस्था सम्बन्धी विचारधारा का उल्लेख पहले किया जा चुका है। ज्ञान निम्न प्रकार परिभाषित है :
“ 'स्व' को स्व के रूप में/'पर' को पर के रूप में/जानना ही सही ज्ञान है,
और/'स्व' में रमण करना/सही ज्ञान का 'फल'।" (पृ. ३७५) सम्यक् चारित्र का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कवि ने लिखा है कि आस्था पर्वत का मूल है और चारित्र है चूल फल पाने के लिए चूल पर पहुँचना ही पड़ता है और वहाँ पहुँचना जैसे चरणों का प्रयोग किए बिना सम्भव नहीं है, ऐसे ही सम्यक् चारित्र के बिना फल-प्राप्ति नहीं । इन विचारों को पढ़िए कवि के शब्दों में :
"पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना
शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ. १०) सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र दोनों की उपयोगिता दर्शाने के लिए कवि ने वृक्ष का अनुपम उदाहरण दिया है । जैसे, मूल के बिना वृक्ष स्थिर नहीं रहता इसलिए मूल चाहिए ही, किन्तु यह भी सच है कि मूल में फल नहीं लगते। वे तो वृक्षों के चूल में फलते हैं। उन्हें पाने के लिए चूल तक पहुँचना होता है । यह चूल तक पहुँचने की क्रिया ही है-सम्यक् आचरण । इसका तात्पर्य है कि फल-प्राप्ति के लिए साधक को दोनों आवश्यक हैं। कवि की यह विचारधारा निम्न शब्दों में व्यक्त हुई है :
"यह बात सही है कि,/आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं, परन्तु/मूल में कभी/फूल खिले हैं ?/फलों का दल वह
दोलायित होता है/चूल पर ही आखिर !" (पृ. १०) साधना के क्षेत्र में कवि की अनुभूति में गहराई है। कवि के विचार हैं :
“निरन्तर अभ्यास के बाद भी/स्खलन सम्भव है।" (पृ. ११) आचार्यों ने सम्यक् ज्ञान को आस्था और आचरण के मध्य सम्भवत: इसीलिए स्थान दिया है, ताकि वह दोनों को सँभाले रहे । सच है सम्यक् ज्ञान ही एक है जो दोनों की स्थिति बनाए रख सकता है । साधना की प्राथमिक दशा में बहुत धैर्य और बल चाहिए। इस सन्दर्भ में ध्यातव्य हैं कवि की निम्न पंक्तियाँ :
"भले ही वह/आस्था हो स्थायी/हो दृढा, दृढ़तरा भी/तथापि प्राथमिक दशा में/साधना के क्षेत्र में/स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा !/स्वस्थ-प्रौढ पुरुष भी क्यों न हो
काई लगे पाषाण पर/पद फिसलता ही है !" (पृ. ११) जब साधना काल में प्रतिकूलताएँ जन्मती हैं तब साधक के गुमराह हो जाने की और ग़म की आहे निकलने की