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मूकमाटी-मीमांसा :: 353 सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। ऐसी स्थिति में सम्यक् ज्ञान स्थिर नहीं रह पाता। कवि के विचार इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं निम्न पंक्तियों में :
"बोधि की चिड़िया वह/पुर क्यों न कर जायेगी ?
क्रोध की बुढ़िया वह/गुर्र क्यों न कर जागेगी?" (पृ. १२) साधना से स्खलित व्यक्ति का जीवन विफल हो जाता है। उसके जीवन में सार्थकताओं का अभाव हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के सन्दर्भ में कवि ने निम्न दो पंक्तियों में ही सार रूप में सब कुछ कह दिया है । पंक्तियाँ हैं :
“साधना-स्खलित जीवन में/अनर्थ के सिवा और क्या घटेगा ?" (पृ. १२) मोक्ष : आचार्यश्री ने जिसे आस्था, बोधि और आचरण कहा है, अध्यात्म के क्षेत्र में उनके अपर नाम हैंसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । इन तीनों के समन्वित रूप का फल है मोक्ष । कवि ने मोक्ष की निम्न व्याख्या की है :
"पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है ।/और
अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है।" (पृ. ९३) ___ इन पंक्तियों में स्व स्वभाव में रमण करने को मोक्ष संज्ञा दी गई है। यह भी समझा दिया गया है कि मोह विभाव है। जो उसमें पड़ेगा वह संसार में ही भटकेगा । स्वभाव और विभाव क्या हैं ? उनका फल क्या है ?-कवि ने इसे निम्न पंक्तियों में समझाया है :
"अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है/और/सबको छोड़कर
अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०) कवि ने मोक्ष के सन्दर्भ में ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों को ही बाधक नहीं माना है अपितु उन्होंने तन, मन और वचन को मिटा देना ही मोक्ष कहा है। ठीक है-'न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।' जब ये तीनों ही नहीं होंगे तो अष्ट कर्मों के बन्धन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होगा।
___कवि ने दूध का सटीक उदाहरण देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि जैसे दूध के घी बन चुकने पर वह पुन: दूध नहीं बन पाता, इसी प्रकार मोक्ष धाम में पहुँचा जीव लौटकर संसार में नहीं आता । इन विचारों की अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद, यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ! दुग्ध का विकास होता है/फिर अन्त में/घृत का विलास होता है, किन्तु/घृत का दुग्ध के रूप में/लौट आना सम्भव है क्या ?
तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७) सत्य और तथ्य : कवि ने आचार्य उमास्वामी के 'तत्त्वार्थसूत्र' (५/३०) में आए उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सत् को ही सत्य और तथ्य संज्ञा दी है । इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं कवि की निम्न पंक्तियाँ :