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'मूकमाटी' : आध्यात्मिक चिन्तन का अपूर्व भण्डार
डॉ. कस्तूरचन्द्र जैन 'सुमन' आचार्य विद्यासागर प्रणीत 'मूकमाटी' महाकाव्य आध्यात्मिक चिन्तन का अभूतपूर्व भण्डार है । माटी जैसी तुच्छ वस्तु को महाकाव्य की विषयवस्तु बनाकर और उसे मंगल घट के रूप में दर्शाकर आत्मा की विशुद्ध स्थिति को उद्घाटित करने में प्रदर्शित आचार्यश्री की सूझ-बूझ स्तुत्य है । दार्शनिक एवं धार्मिक पक्ष
दार्शनिक एवं धार्मिक विषयों की विवेचना में आचार्यश्री ने पूर्वाचार्य-विचारधारा का अनुगमन किया है। संसारी प्राणी की स्वाभाविक स्थिति का चित्रण करते हुए उन्होंने उसे अशान्त बताकर उसकी शान्ति-खोज का गहराई से अध्ययन किया और उन्होंने पाया कि शान्ति की खोज जड़ (शरीर) में की जा रही है जबकि शान्ति उसमें नहीं है : "जड़ में शीतलता कहाँ...?" (पृ. ८५)।
शान्ति के प्रसंग में आचार्यश्री का चिन्तन है कि जड़ की चिन्ता छोड़नी होगी। जड़ (शरीर) शव है। शिव के लिए जड़ का-शव का उपयोग आवश्यक है, किन्तु राग नहीं। उन्होंने इस तथ्य को इस प्रकार लिखा है:
"शव में आग लगाना होगा,/और/शिव में राग जगाना होगा।” (पृ. ८४) शान्ति के लिए अपेक्षित है साधना और साधना के किए अपेक्षित है आस्था-तत्त्व श्रद्धा । इस सन्दर्भ में ध्यातव्य हैं कवि के निम्न विचार:
___“आस्था के तारों पर ही/साधना की अंगुलियाँ/चलती हैं साधक की।" (पृ. ९) आस्था बोधगम्य होती है। कवि ने नदी और सागर के दृष्टान्त द्वारा आस्था सम्बन्धी अपने विचार निम्न प्रकार अभिव्यक्त किए हैं :
"जो खिसकती-सरकती है/सरिता कहलाती है/सो अस्थाई होती है । और/सागर नहीं सरकता/सो स्थाई होता है/परन्तु, सरिता सरकती सागर की ओर ही ना!/अन्यथा,/न सरिता रहे, न सागर ! यह सरकन ही सरिता की समिति है,/यह निरखन ही सरिता की प्रमिति है,
बस यही तो आस्था कहलाती है।" (पृ. ११९-१२०) आस्था न दृश्य होती है न स्पृश्य । वह गूंगे की शर्करा है। पढ़िएगा कवि के विचार इस सन्दर्भ में :
"आस्था का दर्शन आस्था से ही सम्भव है/न आँखों से, न आशा से।" (पृ. १२१) कवि ने आस्था के लिए प्रतिकार और अतिचार को हेय बताया है। ध्यातव्य है माता का मिट्टी को उपदेश :
"प्रतिकार की पारणा/छोड़नी होगी, बेटा !/अतिचार की धारणा तोड़नी होगी, बेटा !/अन्यथा,/कालान्तर में निश्चित/ये दोनों