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मूकमाटी-मीमांसा :: 349
"कला शब्द स्वयं कह रहा कि/'क' यानी आत्मा-सुख है 'ला' यानी लाना-देता है/कोई भी कला हो/कला मात्र से जीवन में
सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है।/न अर्थ में सुख है/न अर्थ से सुख है !" (पृ. ३९६) अन्यत्र इस रचना में कुम्भ के मुख मण्डल पर अंकित कछुवे और खरगोश के चित्र साधक को यदि साधना की विधि बता कर-“प्रमाद पथिक का परम शत्रु है" (पृ. १७२)-की ओर संकेत करते हैं, तो 'ही' और 'भी' दो बीजाक्षरों से रचनाकार ने जिस दर्शन का प्रतिनिधित्व किया है, वह 'ही' से एकान्तवाद तथा 'भी' से अनेकान्त व स्याद्वाद है।
'मूकमाटी' में अन्यान्य उक्तियों की भी इस कवि ने दार्शनिक व्याख्या की है। यह कवि जन्म-मरण अर्थात् संसार में प्राणी के आने-जाने को-'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्' (पृ. १८४) उक्ति की व्याख्या के द्वारा प्रस्तुत करता
है ।
“आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है
और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य !" (पृ. १८५) जैनधर्म में किसी जगत्-नियन्ता के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखा गया। आचार्य विद्यासागरजी ने भी कालचक्र को शाश्वत मानकर मात्र इसे ही परम सत्ता का रहस्य कहा है और प्राणीमात्र सदा काल के प्रवाह में बहता रहता है और इसे ही प्राणी का कर्म बताया गया है : “यह एक नदी का प्रवाह रहा है-/काल का प्रवाह, बस/बह रहा है।/लो, बहता-बहता/कह रहा है, कि/जीव या अजीव का यह जीवन/पल-पल इसी प्रवाह में/बह रहा/बहता जा रहा है,/यहाँ पर कोई भी/स्थिर-धुव-चिर/न रहा, न रहेगा, न था/बहाव बहना ही धुव/रह रहा है,/सत्ता का यही, बस/रहस रहा, जो विहँस रहा है।” (पृ. २९०)
'मूकमाटी' के चतुर्थ खण्ड में एक धर्मोपदेशक सन्त के द्वारा अज्ञानी सेठ को 'सन्त समागम' का सन्देश भी दिलवाया है । अज्ञानी सेठ धर्मोपदेश का सार ग्रहण करके अनमने भाव से घर लौट जाता है। मानों उसे जीवन का सही गन्तव्य दृश्यमान् हो गया हो । सेठ की उदास मुख-मुद्रा को देख कर गौरवशाली कुम्भ कहता है : “सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है,/समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने/इसमें कोई नियम नहीं है, किन्तु वह/सन्तोषी अवश्य बनता है।/सही दिशा का प्रसाद ही/सही दशा का प्रासाद है" (पृ.३५२) । इस रचना में श्रमण संस्कृति के प्रति जिस विश्वास को दर्शाया गया है, वह भी इस कवि की दार्शनिक चेतना की आख्यायिका है । इस कवि का मत है कि प्राणीमात्र के अक्षय सुख-सम्बन्ध उसके आचरण की शुद्धता के कारण बने रहते हैं। इसीलिए यह कवि जीवन के प्रति विश्वस्त बने रहने की अनुमति देता है। उसका कथन है कि प्राणी को जब जीवन की सही मंज़िल मिल जाती है तो उसके विश्वासों को अनुभूति की संज्ञा उपलब्ध हो जाती है । आचरण की शुद्धता से घनीभूत और सजग अनुभूतिशील प्राणी सर्वहित की मंगल कामना की पुण्य भावना से सराबोर हो जाता है । और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना करने लगता है :
“यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता