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348 :: मूकमाटी-मीमांसा खिलाड़ी तथा प्रकृति को उसके हाथों का खिलौना मात्र बताया है, क्योंकि एक कुशल खिलाड़ी को प्रकृति का खिलौना नहीं समझना चाहिए:
"पुरुष और प्रकृति/इन दोनों के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना/मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र ! खेल खेलने वाला तो पुरुष है/और/प्रकृति खिलौना मात्र ! स्वयं को खिलौना बनाना/कोई खेल नहीं है,
विशेष खिलाड़ी की बात है यह !" (पृ.३९४) ___ इस कवि की प्रकृति तथा पुरुष के सम्बन्ध की व्याख्या पुरुष को धरती पर महिमामण्डित सृजनशीलता की द्योतिका सिद्ध करता है। अन्यत्र इस रचना में पुरुष व प्रकृति के सम्बन्ध को साधना की रीति के शाश्वत सत्य के द्वारा भी दर्शाया गया है, जो इस कवि के दार्शनिक चिन्तन का परिचायक है :
"प्रकृति के विपरीत चलना/साधना की रीत नहीं है। बिना प्रीति, विरति का पलना/साधना की जीत नहीं,
...पुरुष होता है भोक्ता/और/भोग्या होती प्रकृति ।" (पृ. ३९१) इस दार्शनिक कवि ने अन्यान्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या एवं तुलना से भी अपनी दार्शनिक मन:स्थिति का परिचय दिया है। 'स्वभाव' और 'विभाव' शब्दों के अन्तर को स्पष्ट करता हुआ यह कवि कहता है :
"जल जीवन देता है/हिम जीवन लेता है,/स्वभाव और विभाव में
यही अन्तर है,/यही सन्तों का कहना है/जो/जग-जीवन-वेत्ता हैं।" (पृ.५४) मानव जीवन में संयम की राह पर चल कर राही बने रहना हीरा' बनना है और प्राणी अपने तन और मन को तपस्या की अग्नि के साथ तपा-तपा कर राख बना लेता है, तो उसकी चेतना 'खरा' रूप धारण कर लेती है :
"संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही/विलोम-रूप से कह रहा है-/राही हीरा ...तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर जला-जला कर/राख करना होगा/यतना घोर करना होगा तभी कहीं चेतन-आत्मा/खरा उतरेगा ।/खरा शब्द भी स्वयं विलोम-रूप से कह रहा है-/राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?
राख खरा।" (पृ. ५७) पुन: इस कवि ने 'मूकमाटी' के अन्यान्य प्रसंगों में 'स्व' और 'पर' की चर्चा करके अपनी दार्शनिक सूझ का बोध कराया है। कुम्भ व स्फटिक झारी के वार्तालाप में इस कवि ने शुद्ध ज्ञान तथा इसके द्वारा फल-प्राप्ति के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया है।
'कला' शब्द को लेकर कवि विद्यासागर ने सुख-शान्ति-सम्पन्नता की जो चर्चा की है, वह नि:सन्देह इस कवि की दार्शनिक अन्तरात्मा की परिचायक है :