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मूकमाटी-मीमांसा :: 347
"हिंसा की हिंसा करना ही / अहिंसा की पूजा है "प्रशंसा, /और हिंसक की हिंसा या पूजा / नियम से / अहिंसा की हत्या है" नृशंसा । " (पृ.२३३)
'मूकमाटी' में अन्यत्र ज्ञानेन्द्रियों को खिड़कियाँ, शरीर को भवन कहा है, जिसमें बैठकर प्राणी इन ज्ञानेन्द्रियों रूपी खिड़कियों से अपने वासना रूपी नेत्रों के द्वारा झाँक कर विषय विकारों का बोध करता है । इस कवि के द्वारा अपनाया गया रूपक दार्शनिक प्रक्रिया की साक्षी भरता है :
"विषयों का ग्रहण - बोध / इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है विषयी-विषय-रसिकों को । / वस्तु-स्थिति यह है कि इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं / तन यह भवन रहा है, / भवन में बैठा-बैठा भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है / वासना की आँखों से और / विषयों को ग्रहण करता रहता है।" (पृ. ३२९)
पुरुष
और जब मानव-शरीर पर से मन और वचन का बन्धन टूट जाता है तो वह मोक्षावस्था में शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है । उसे अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसकी प्राप्ति के पश्चात् वह सांसारिक आवागमन से मुक्त हो जाता है। इस कवि का दार्शनिक शब्द चित्र प्रस्तुत है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही मोक्ष है । / इसी की शुद्ध - दशा में / अविनश्वर सुख होता है
जिसे / प्राप्त होने के बाद, / यहाँ / संसार में आना कैसे सम्भव है तुम ही बताओ !” (पृ. ४८६-४८७)
वास्तव में मोक्ष-प्राप्ति को मानव-जीवन का अन्तिम ध्येय स्वीकार किया गया है, जिसे जैन धर्म में 'निर्वाण प्राप्ति' कहा गया है। ‘मूकमाटी' के द्वितीय खण्ड में " वसन्त का अन्त हो चुका है / अनन्त में सान्त खो चुका है” (पृ. १७७)-शब्द इस कवि के द्वारा जन्म-मरण के चक्र की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इसे इस कवि ने प्रकृति का अकाट्य नियम बताया है:
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" जिसने मरण को पाया है / उसे जनन को पाना है / और जिसने जनन को पाया है / उसे मरण को पाना है यह अकाट्य नियम है !” (पृ. १८१)
जैनधर्मावलम्बी यह कवि इस सिद्धान्त की व्याख्या दुग्ध व घृत के उदाहरण से अपने दार्शनिक प्रवचन के द्वारा प्रस्तुत करता है :
" दुग्ध का विकास होता है / फिर अन्त में / घृत का विलास होता है, किन्तु / घृत का दुग्ध के रूप में / लौट आना सम्भव है क्या ? तुम ही बताओ !" (पृ. ४८७ )
आचार्य विद्यासागर ने इस दृश्यमान् जगत् को पुरुष और प्रकृति का क्रीड़ा स्थल कहकर पुरुष को एक कुशल