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346 :: मूकमाटी-मीमांसा सम्भवतः इसीलिए 'मूकमाटी' में जिज्ञासुओं को नर से नारायण बनने का भव्य सन्देश दिया गया है :
"ऋषि - सन्तों का/सदुपदेश - सदादेश/हमें यही मिला कि पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।
अयि आर्य !/नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य ।” (पृ. ५०-५१) वास्तव में जैन धर्मावलम्बी यह कवि मानव-जीवन को शुभ संस्कारों से सम्पुष्ट बनाकर वीतराग श्रमणसंस्कृति के निरूपण के लिए दृढ़संकल्पित है। अस्तु, आचार्य विद्यासागर जीवन में शुभ तत्त्व के प्रतिष्ठापन के लिए"लघुता का त्यजन ही/गुरुता का यजन ही"-के मूलभूत सिद्धान्त की पक्षधरता करने लगता है।
___ जीवन में सत्यगामी बने रहना, क्रोधादि निषेध, आत्म-नियन्त्रण, मन और वचन से सात्त्विकता के प्रति अनुरक्त बने रहना आदि मानव-जीवन के अनिवार्य तत्त्व माने गए हैं। वहाँ अहिंसा को मानव धर्म का प्रमुख अंग स्वीकार किया गया है। मनुस्मृति' में स्पष्ट कहा गया है :
"अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा ।
आर्जवश्चैव राजेन्द्र ! निश्चितं धर्मलक्षणम् ॥" परन्तु जैनधर्म में अहिंसा को उपास्य देवता के रूप में मान्यता प्राप्त है और जहाँ जीव-अजीवों के प्रति जो प्रेम तथा दयाभाव दर्शाया गया है, वह बौद्ध आदि अन्य धर्मों से कहीं अधिक है। 'अहिंसा परमो धर्म:'-जैन धर्म का मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्त है। 'मूकमाटी' के रचयिता ने भी अहिंसा की विशद व्याख्या की है। इस कवि ने रस्सी और रसना के संवाद में शिल्पी के संयमी स्वभाव को उद्घाटित करके हिंसा के प्रति निन्दा-प्रदर्शन व अहिंसा की पक्षधरता को जीवन यापन में प्रमाणित किया है :
"मेरे स्वामी संयमी हैं/हिंसा से भयभीत,/और अहिंसा ही जीवन है उनका ।/उनका कहना है/कि संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है
जो यथा-योग्य/सही आदमी है ।" (पृ. ६४) यही नहीं, इस कवि ने स्वीकार किया है कि जीवन से जुड़ी हुई विविध क्रियाओं में गतिरोध (ग्रन्थि) हिंसा की सम्पादिका बनती है। इसीलिए इस रचना में निर्ग्रन्थ जीवन-यापन पर बल दिया गया है, क्योंकि ऐसे जीवन यापन की संसार में चर्चा-अर्चा-प्रशंसा बनी रहती है :
"हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और/जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है।/अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और/निर्ग्रन्थ-दशा में ही अहिंसा पलती है,/पल-पल पनपती,/ "बल पाती है। हम निर्ग्रन्थ-पन्य के पथिक हैं/इसी पन्थ की हमारे यहाँ
चर्चा-अर्चा-प्रशंसा/सदा चलती रहती है।” (पृ. ६४) यह कवि अहिंसा के प्रति इतना अनुरक्त है कि अहिंसा की पूजा करने का आह्वान करने लगता है :