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मूकमाटी-मीमांसा :: 345
कवि विद्यासागर के द्वारा व्यक्त अध्यात्म और दर्शन सम्बन्धी व्याख्या अति गहन तथा रहस्य भरपूर है । वह दर्शन तथा अध्यात्म को मानवीय जीवन के आधार समझने में सन्देह प्रकट करता है और सदाशय, सदाचार व सन्तोष जैसे मानव-मूल्यों को मानव-जीवन के अनिवार्य तत्त्व स्वीकार करता है। स्पष्ट है यह कवि एक धर्मोपदेशक की भाँति मूल्यों को जीवन-यापन में धारण करने की सलाह भी देता है। 'मूकमाटी' में सन्तोष की ग्रहणशीलता सम्बन्धी व्याख्या
"बिना सन्तोष, जीवन सदोष है/यही कारण है, कि प्रशंसा-यश की तृष्णा से झुलसा/यह सदोष जीवन सहज जय-घोषों की, सुखद गुणों की
सघन-शीतल छाँव से वंचित रहता है।" (पृ. ३३९) जैन धर्म में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र को 'त्रिरत्न' कहा गया है। इन्हें जैन दर्शन के मूलाधार भी बताया गया है। दूसरे शब्दों में मोक्ष का मार्ग जैन धर्म में पूर्ण आस्था, जैन धर्म के उपदेशों का पूर्ण ज्ञान तथा आचरण सम्मत जीवन-यापन से प्रशस्त होता है।
'मूकमाटी' का कवि सत्य-असत्य के निरूपण में अपने दार्शनिक भावों को वाणी देता है । सत् की खोज में लोन दृष्टि सत्-युग और असत्-विषय-विकारों में डूबी हुई, सत् को असत् स्वीकार करने वाली भ्रमित दृष्टि कलियुग की आख्यायिका बनती है । सत् शान्ति का मानस और असत् भ्रान्तिमय बना रहता है । असत् व्यष्टिपरक और सत् समष्टिपरक होता है । सत् अमृत समान होकर शिव रूप की सृष्टि करता है, जबकि असत् मृतक व कान्तिविहीन होकर शव रूप धारण करता है । इस कवि की सत्-असत् सम्बन्धी व्याख्या प्रस्तुत है :
“सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ/सत् को असत् मानने वाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा !/...सत् की आँखों में/शान्ति का मानस ही लहराता है सदा/एक की दृष्टि/व्यष्टि की ओर/भाग रही है, एक की दृष्टि/समष्टि की ओर/जाग रही है, ...एक का जीवन/मृतक-सा लगता है/कान्तिमुक्त शव है,
एक का जीवन/अमृत-सा लगता है/कान्तियुक्त शिव है।” (पृ. ८३-८४ ) इसीलिए, यह कवि-"सत्य-धर्म की जय हो !/सत्य-धर्म की जय हो !!"(पृ. २१६) का जयघोष आलाप उठता है ।
__ आचरण की शुद्धता मानव-जीवन का अनिवार्य तत्त्व है । शुद्ध सात्त्विक जीवन-यापन का पक्षधर बनता हुआ यह कवि संकर-दोष से मुक्त होने के लिए वर्ण-लाभ को मानव-जीवन का औदार्य व साफल्य स्वीकार करता हुआ 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' के सिद्धान्त की व्याख्या भी करता है :
"नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है। और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है इससे यही फलित हुआ,/अलं विस्तरेण !" (पृ. ४९)