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344 :: मूकमाटी-मीमांसा
"प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है/उन्हीं भावों से मिटती भी वह,
वहीं समाहित होती है।” (पृ. २८२ ) इस रचना में कवि विद्यासागर मानव के साधना के क्षणों में ध्यान केन्द्रित होने को दो धरातलों पर वाणी देता है। एक भोग-राग व मद्य-पान भक्षी है, जो विकल्पों के मोह जाल में उलझ कर शव रूप हो जाता है, परन्तु दूसरा योगत्याग के माध्यम से शिव रूप होकर जीवन-यापन में खरा उतरता है :
"इस युग के/दो मानव/अपने आप को/खोना चाहते हैंएक/भोग-राग को/मद्य-पान को/चुनता है;/और एक योग-त्याग को/आत्म-ध्यान को/धुनता है ।/कुछ ही क्षणों में दोनों होते/विकल्पों से मुक्त ।/फिर क्या कहना !/एक शव के समान
निरा पड़ा है,/और एक/शिव के समान/खरा उतरा है।" (पृ. २८६ ) कुम्भ की अग्नि-परीक्षा होती है । वह जीवन पद्धति में दर्शन की अबाधता तथा अध्यात्म की अगाधता का रहस्य अग्नि से निवेदित करता है। उसकी जिज्ञासा- "क्या दर्शन और अध्यात्म/एक जीवन के दो पद हैं ?" (पृ.२८७)-से अभिभूत होकर पूज्य-पूजक एवं कार्य-कारण की मनोभूमि पर न टिकी रहकर मुक्ति की मंगल कामना के निमित्त निवेदित हो उठती है। दर्शन और अध्यात्म की मीमांसा से ही अग्नि की देशना का श्रीगणेश होता है और माटी मूकभाव से कवि दर्शन की मन:स्थिति में लीन हो जाती है । दार्शनिक कवि ने दर्शन और अध्यात्म की जो व्याख्या की है, वह निःसन्देह उसके दार्शनिक मन की परतों को अनावृत करती है । उस के अनुसार स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है, अन्तर्मुखी अथवा बन्दमुखी चिदाभा निरंजन का दिग्दर्शन कराती है । दर्शन का मूलस्रोत मस्तक बताया गया है, जबकि स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म प्रवृत्त होता है । दर्शन कभी सत्य रूप व कभी असत्य रूप तथा शुद्धतत्त्व विहीन होता है, जबकि अध्यात्म सदा, सर्वथा सत्य रूप व भास्वत बना रहता है । दर्शन का आयुध शब्द एवं विचार बताया गया है, जबकि अध्यात्म निरायुध व निर्विचार कहा गया है । अस्तु, दर्शन व अध्यात्म सम्बन्धी यह मीमांसा इस कवि के द्वारा अनेकानेक संकल्पों-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन की झाँकी प्रस्तुत करती है :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है,/स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है।/दर्शन के बिना अध्यात्म-जीवन चल सकता है,/चलता ही है/पर, हाँ !/बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं। ...दर्शन के आस-पास ही घूमती है/तथता और वितथता/यानी, कभी सत्य-रूप व कभी असत्य-रूप/होता है दर्शन, जबकि अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही/भास्वत होता है। स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है ।/...बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही दर्शन का पान करती है,/अन्तर्मुखी, बन्दमुखी चिदाभा निरंजन का गान करती है ।/दर्शन का आयुध शब्द है-विचार, अध्यात्म निरायुध होता है ।/सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार ! एक ज्ञान है, ज्ञेय भी/एक ध्यान है, ध्येय भी।" (पृ. २८८-२८९)