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________________ 'मूकमाटी' : दार्शनिक अवधारणा डॉ. शमीर सिंह “आचार्य श्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है" (प्रस्तवन) । उनकी यह रचना लोक-मंगल की साधना का नियोजन बन कर मानवीय जीवन-यापन सम्बन्धी दर्शन को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करती है । यह कवि-जीवन से जुड़ी हुई विविध क्रियाकलापों से अति प्रभावित है और इसीलिए वह अपनी निजी अनुभूतियों को जीवनदर्शन के माध्यम से पाठकों के सम्मुख अनावृत कर देता है। उसने माटी जैसी तुच्छ, अकिंचित्, पद-दलित वस्तु को लेकर नितान्त भव्य तथा विशुद्ध सृजनशीलता के दर्शन कराए हैं। निरीह माटी की मुक्ति एवं मोक्ष प्रमुख्यत: पुरुष की प्रकृति पर आधारित है। इस कवि का यह मन्तव्य है कि पुरुष जिस सीमा तक प्रकृति के सामीप्य व संस्पर्श को ग्रहण करता है, उसी सीमा तक उसे जीवन की सार्थकता का बोध होगा। 'मूकमाटी' में पुरुष के प्रकृति में रमने को 'मोक्ष' तथा प्रकृति से दूर रहने को 'भ्रमना' बताया गया है: "पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है। और अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) भाग्यवान् भाग्यविधाता कर्तव्यप्रबुद्ध कुम्भकार अपने भव्य-सृजन-हेतु माटी को कुदाली से खोद कर बोरी में बन्द कर लेता है। शिल्पी की इस निर्दय क्रिया पर माटी क्रोध अथवा रुदन तक व्यक्त नहीं करती और मूक भाव से लज्जाशील बनी हुई नवविवाहिता दुल्हन की भाँति बोरी में से झाँकती रहती है। उसके सात्त्विक गालों पर घावों के छिद्र दिखाई देने लगते हैं। वह मात्र दीर्घ श्वास लेकर अपने अव्यक्त भावों को वाणी देती है। निरीह माटी की इस मूक वेदना का आभास करके संवेदनशील शिल्पी माटी के इतिहास को उसके मुख से सुनकर सहज रूप से जीवन सम्बन्धी वास्तविकता एवं रहस्य को पा लेता है और धन्य हो जाता है। इस रहस्योद्घाटन के उपरान्त जीवन-दर्शन सम्बन्धी जिस अकाट्य नियम की व्याख्या हुई है, वह इस कवि की दार्शनिक प्रवृत्ति की द्योतक है : "अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव !" (पृ. ३३) यह कवि तो जीवन की पीड़ा को मानव मंगल का नियोजक स्वीकार करने लगता है : "अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है और/पीड़ा की इति ही/सुख का अर्थ है ।" (पृ. ३३) दर्शन प्रबुद्ध यह कवि अग्नि के धर्म की चर्चा करता हुआ इसे निर्विकार, निधूम, अनादि, विकासोन्मुख, अनिधन व सहाश्रित बताता है। इसीलिए तो सम्भवत: यह जन्म लेकर अपने में ही समा जाती है । संसार में जो प्राणी अग्नि को आत्मसात् कर लेता है उसे जीवन में यथेच्छित फल प्राप्ति होती है। इस कवि की जीवन सम्बन्धी विविध अनुभूतियों के प्रति दार्शनिक दृष्टि इन शब्दों में चित्रित हुई है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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