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340 :: मूकमाटी-मीमांसा
आचार्य विद्यासागर के अनुसार 'नारी' शब्द का अर्थ है- न+अरि, अर्थात् जिसका कोई शत्रु नहीं है और जो अजातशत्रु बनकर विश्वबन्धुत्व की ओर बढ़ती है । उसकी आँखों से करुणा की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है और शत्रुता उसे छू नहीं सकती। नारी महिला' कहलाने की हक़दार है, क्योंकि वह पुरुष के जीवन में मंगलमय वातावरण लाती है :
"जो/मह यानी मंगलमय माहौल,/महोत्सव जीवन में लाती है,
महिला कहलाती वह।” (पृ. २०२) ___ जो निराधार होता है, निरावलम्ब होता है, जिसे आधार या सहारे की नितान्त आवश्यकता होती है, जो जीवन में पूर्णतया निराश और हतोत्साह होता है, उस पुरुष में :
“मही यानी धरती/धृति-धारणी जननी के प्रति अपूर्व आस्था जगाती है। और पुरुष को रास्ता बताती है
सही-सही गन्तव्य का-/महिला कहलाती वह !" (पृ. २०३) यही नहीं, जो संग्रहणी व्याधि से पीड़ित होता है, जिसके जीवन में संयम और जठराग्नि मन्द पड़ी है और जो परिग्रह संग्रह से पीड़ित होता है, उस पुरुष को वह मठा-महेरी पिलाती है, इसलिए 'महिला' कहलाती है। और सुखद आश्चर्य ! 'अबला' की व्युत्पत्ति आचार्य विद्यासागर ने अब' में ढूँढ़ी है, अर्थात्
"...जो/पुरुष-चित्त की वृत्ति को/विगत की दशाओं/और अनागत की आशाओं से/पूरी तरह हटाकर/ अब' यानी,
आगत - वर्तमान में लाती है/अबला कहलाती है वह"!" (पृ. २०३) 'अबला' का एक और अर्थ है, जो बला को दूर रखे, वह अबला है । बला का मतलब है समस्या- संकट । अबला का सहयोग और साहचर्य प्रत्येक क़दम पर पुरुष के लिए आवश्यक होता है, उसके बिना सबल पुरुष भी निर्बल बन जाता है। यदि अबला का साथ पुरुष को प्राप्त न हो तो पुरुष जीवन की अनेकानेक समस्याओं से निस्तार नहीं पा सकता। निस्तार पाने की बात तो दूर, वह सृष्टि की समस्या से जूझने के लिए पर्याप्त बल नहीं धारण कर सकता। पत्नी का रावण द्वारा हरण हो जाने पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का हृदय भी एक बार भयभीत हो गया था : "घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥"
(रामचरितमानस : किष्किन्धा काण्ड) मांगलिक पर्यों में कुमारी कन्याओं की पूजा की जाती है । 'कुमारी' का विशिष्ट अर्थ सम्पदा-सम्पन्ना है। 'कुं' का अर्थ पृथिवी है, 'मा' का लक्ष्मी और 'री' का दाता । संकेत इस तथ्य की ओर है कि जब तक धरा पर कुमारियाँ रहेंगी, यह धरा समस्त सम्पदाओं से परिपूर्ण रहेगी।
स्' यानी समशील संयम एवं त्री' यानी धर्म, अर्थ और काम- अर्थात् जो इन तीनों पुरुषार्थों में पुरुष को कुशल संयत बनाती है, वही 'स्त्री' है । गृहस्थ धर्म का सफलतापूर्वक आचरण करने के लिए धर्म, अर्थ और काम जैसे पुरुषार्थों की पुरुष को नितान्त आवश्यकता होती है । इन पुरुषार्थों के मार्ग में पुरुष के लिए पाप की ओर अग्रसर होने की आशंका रहती है। उस पाप को पुण्य में बदलने के लिए स्त्री सदैव प्रयत्नशील रहती है। पुरुष की वासना संयत हो और उपासना संगत