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माता का जय-ग
डॉ. सुशीला गुप्ता नारी की पद मर्यादा भारत देश में प्रवृत्ति मार्ग के उत्थान से उठती और निवृत्ति मार्ग के प्रचार से गिरती रही है। इस देश की जनता ने लोक की प्रतिष्ठा बढ़ाने और ऐहिक सुख को महत्त्व देने की मनोवृत्ति के साथ नारी को अत्यन्त सम्मानजनक स्थान दिया है और समाज की उन्नति के लिए नारी की उन्नति को आवश्यक माना है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" जैसे उद्गार नारी की प्रतिष्ठा और सम्मान के द्योतक माने जा सकते हैं, परन्तु समाज का एक ऐसा भी वर्ग रहा है, जिसने जीवन को असत्य और क्षणभंगुर मान लोक की अपेक्षा परलोक की चिन्ता में वैराग्य की स्वीकृति के साथ नारी की मर्यादा की पूर्ण उपेक्षा की है। जीवन को भोग-विलास की वस्तु समझने वालों ने जीवन का सच्चा सुख पाने के लिए नारी को सम्मान दिया, उसकी पूजा की, क्योंकि वे समझते थे कि नारी आनन्द की खान है । अत: उस आनन्द की खान नारी को ठुकराकर नहीं, वरन् उसे स्वीकृति प्रदान करके ही जीवन में आनन्दोपभोग सम्भव है, परन्तु जिन्होंने जीवन में वैराग्य का रास्ता अपनाया, उन्होंने वैयक्तिक मुक्ति के लिए नारी को सिद्धि के मार्ग में बाधक समझ उसे त्याग देने और उसकी उपेक्षा में ही अपना गौरव समझा।
पुनरुत्थान युग के मनीषियों, चिन्तकों और समाज-सुधारकों के मार्गदर्शन में देशवासियों ने जिस प्रकार अपनी राजनीतिक पराधीनता की दाह का अनुभव किया, उसी प्रकार नारी के प्रति अतिवादी दृष्टिकोणों की वास्तविकता का सामना किया। नारी के नख-शिख के सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर्तव्य-पथ से विचलित हो वासनापूर्ण जीवन जीने और नारियों की अवज्ञा सिखाने वाली कुत्सित परम्परा दोनों का आधुनिक युग में मूलोच्छेद हो गया और देशवासियों के मन में यह अनुभूति जगी कि नारी अपने व्यक्तित्व, निर्णय और योग्यता की धनी है तथा समाज में आदर, श्रद्धा और स्नेह की पात्र है।
___ 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचयिता आचार्य विद्यासागर एक दार्शनिक सन्त हैं। महर्षि अरविन्द का कथन है कि आध्यात्मिक सत्य का चिन्तक और दार्शनिक, धार्मिक और नैतिक ही नहीं, व्यावहारिक जीवन का भी सर्वोत्तम मार्गदर्शक होता है। आचार्य विद्यासागर का अध्ययन सूक्ष्म है, उनकी लेखनी में लोकमंगल की ताक़त है और उनकी कृति 'मूकमाटी' में जन-साधारण ही नहीं, विद्वानों के लिए भी अमर सन्देश है । उन्होने जिस तरह मिट्टी को स्वर्ण से भी ऊँचा ठहराया है, उसी तरह नारी को भी बहुत ऊँचा स्थान प्रदान किया है। - आचार्य विद्यासागर में स्त्री के जननी रूप को सबसे बढ़कर माना है । उनकी दृष्टि में जननी का यह स्वभाव होता है कि भूखे-प्यासे बच्चों को देखकर उसका वात्सल्य उमड़ पड़ता है। उसके हृदय से दूध की धार बहने लगती है, यदि बच्चा क्षुधात होता है । या यों कहा जा सकता है कि उसके दूध को इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है कि वह अपनी सन्तान की क्षुधा का निवारण करे।
आचार्यश्री के अनुसार स्त्री का नाम भीरु' इसलिए पड़ा कि वह पाप-भीरु होती है। वह स्वभाव से ही पाप के पलड़े को भारी नहीं पड़ने देती, इसलिए उसकी पाप-भीरुता पलती रहती है। स्त्री यदि भूले-भटके कुपथगामिनी होती है तो उसका कारण वह स्वयं नहीं, बल्कि पुरुष होता है। उसे तो कुपथ और सुपथ की अच्छी परख होती है, इसलिए स्वेच्छा से वह कुपथ की ओर अग्रसर हो ही नहीं सकती। वह तो पुरुष है, जिससे बाध्य होकर उसे कुपथ की ओर अग्रसर होना पड़ता है। नारी को नर से श्रेष्ठ मानने का बड़प्पन राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में भी मिलता है :
"एक नहीं दो दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।" ('द्वापर')