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________________ 338 :: मूकमाटी-मीमांसा महाकाव्य इसी प्रवहमान छन्द में प्रवाहित होता है । अलंकारों की छटा अद्भुत है । भावों के प्रवाह में जैसे दर्शन, सिद्धान्त, नीतिगत उक्तियाँ, गणित के सिद्धान्त का स्वरूप, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि सिद्धान्त, जीवन एवं दर्शन की गुत्थियाँ सुलझा कर साथ में प्रवाहित होने लगती हैं, उसी प्रकार इसमें पद-पद पर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष और अनुप्रास आदि अलंकार उस प्रवाह में, गति में, लय में डूबते-उतराते से दृष्टिगत होते हैं । अलंकारों की बलात् भरमार रंच मात्र भी दिखाई नहीं पड़ती है। संस्कृत के आचार्यों के अनुसार केवल अभिधा के सहारे विभाव आदिकों की वाच्यार्थ प्रतीति कराने से उसका लौकिक रूप ही प्रतीत होता है, जो रसानुभूति के सर्वथा अनुपयुक्त है । लक्षणा और व्यंजना के द्वारा सही रसानुभूति सम्भव होती है। प्रसादजी का 'कामायनी' काव्य छायावादी शैली का सर्वोत्तम काव्य माना जाता है। इसमें मन की सूक्ष्म भावनाओं को साकार रूप प्रदान कर उन्हें इस काव्य के पात्रों के रूप में दर्शाया गया है। मन, मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं, चिन्ता, आशा, काम वासना, लज्जा, इड़ा (बद्धि) आदि सभी पात्र रूप धारण कर 'कामायनी' की कथा को सौन्दर्य प्रदान करते हैं। और इन्हीं पात्रों के माध्यम से प्रसादजी ने अपने वैचारिक सिद्धान्तों के द्वारा मानव जीवन की सार्थकता का सन्देश साकार किया है । यह महाकाव्य हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है। ____ आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का 'मूकमाटी' महाकाव्य 'कामायनी' महाकाव्य से और आगे बढ़ गया है। इसमें माटी से घट बनकर और घट के पावन जल से परमात्मा के चरण प्रक्षालन तक आने वाले समस्त उपकरण, साधन, अवा, लकड़ी, अग्नि, हवा, बादल, नदी, रस्सी एवं समस्त प्रकृति सजीव पात्र बनकर इस महाकाव्य की कथावस्तु को सौन्दर्य प्रदान करते हुए उसे आगे बढ़ाते हैं । इन निर्जीव उपकरणों और वस्तुओं की भाषा, उनमें भावों का आदर्श, सिद्धान्तों का विवेचन, नीतिगत उपदेश, सत्-असत् भावों का संघर्ष, सत् की विजय असतो मा सद् गमय' का ध्रुव सिद्धान्त महान् सौन्दर्य के साथ प्रतिफलित हुआ है। ऐसा कोई विषय नहीं जो इस महाकाव्य में प्रसंगानुसार उपस्थित होकर अपना आदर्श रूप प्रकट न करता हो । सभी निर्जीव पात्र सजीव रूप धारण कर मानव-जीवन की अशान्त अवस्थाओं को शान्ति की ओर ले जाते हैं और अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के सही उत्तर प्रस्तुत करते हैं। मृत्योर्मा अमृतं गमय' का सन्देश देते हैं। जिनका समस्त जीवन ही शान्त रस का स्वरूप है, स्वभाव है, ऐसे महान् सन्त से ऐसे ही महाकाव्य की कामना पूरी हो सकती थी। _ 'मूकमाटी' की भाषा के सम्बन्ध में पृथक् से एक स्वतन्त्र पुस्तक निर्मित की जानी चाहिए, क्योंकि इस महाकाव्य की भाषा, उसका स्वरूप, व्यंजनात्मक ध्वनि, लक्षणात्मक प्रयोग, शब्द की बनावट एवं उसका विच्छेद कर अर्थ का साम्य और वैषम्य अर्थ भाव, शब्द का अनेकार्थों में प्रयोग, प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति की सार्थकता इत्यादि शब्द-शक्ति का ज्ञान जितना इस काव्य के रचयिता को है, उतना अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। जो इस काव्य में है, वह थोड़ा-थोड़ा सब में है, जो इस काव्य में नहीं, वह कहीं नहीं है। 'माटी के माध्यम से जिसमें, आत्म-तत्त्व का शोधन । उस 'माटी' के निर्माता को. मेरा शत-शत वन्दन ॥' पृष्ठ ३५५ यह लेखनी भी... हमारीभी यही भावना है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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