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________________ 336 :: मूकमाटी-मीमांसा योगी, महान् सन्त, सन्त काव्य-परम्परा में राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त कवि हैं । उनके द्वारा रचित यह 'मूकमाटी' महाकाव्य मुक्त छन्द काव्यशैली में निबद्ध नवीन उन्मेषों को नया आयाम देने वाली नई मनोरम कलाकृति है। माटी जैसी निरीह, तुच्छ वस्तु की मूक वेदना-कथा को अपने महाकाव्य का विषय बनाना आचार्यश्री जैसे महान् रचनाकार की काव्य-प्रतिभा का ही चमत्कार है। यह अद्भुत रचना वैशिष्ट्य धारण किए हुए है । इसमें कवि ने माटी के कंकर आदि दोषों को दूर कर, उसे मृदु बना कर, कुम्भकार द्वारा कलशाकार रूप देकर, अग्नि की आँच में उसे तपा कर, कल्याणकारी बना कर, पूजा जैसे पवित्र अनुष्ठान में लगा कर उसका माटी होना सफल कर दिया है। इसके कथानक ने माटी से सम्बद्ध पात्रों का चरित्र निर्मित कर वर्तमान युग की अनेक समस्याओं, विषमताओं को अनेक रंग-रूपों में रँगकर इस काव्य का आकार सँभाला है। आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, ज्योतिष, गणित आदि विषयों का समावेश इस काव्य में दर्शनीय है । कर्मावृत आत्मा का माटी जैसी प्रक्रिया के रास्ते से गुज़रना हो जाए, तभी वह मुक्ति-लाभ प्राप्त कर सकता है। बालयोगी सन्त कवि ने अपने सन्त स्वभाव के अनुरूप श्रृंगार का वर्णन भी अपने ही अनुरूप किया है, जो अत्यन्त मनोहारी है । ऐसा पावन शृंगारिक वर्णन निष्काम योगी से ही बन सकता है : "फूल ने पवन को/प्रेम में नहला दिया,/और/बदले में पवन ने फूल को/प्रेम से हिला दिया !" (पृ. २५८) इस महाकाव्य में रसों का संयोजन बहुत ही स्वाभाविक रूप में हुआ है । महाकाव्य में शान्त, शृंगार, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र आदि रसों का परिपाक आवश्यक होता है । वह 'मूकमाटी' में स्थान-स्थान पर उपलब्ध है। कुछ विशिष्ट रसोत्पादक स्थल भी हैं। वैसे तो इस काव्य में रस, अलंकार आदि का विवेचन एक पृथक् पुस्तक का आधार बन सकता है । किन्तु यहाँ कुछ रसात्मक स्थल को ही स्पर्श किया है। भयानक और वीर रस की उद्भावना में उत्साह और क्रोध स्थायी भावों का वर्णन द्रष्टव्य है : "जलधि की जघन्यता को/तर्जना के कठोर शूलों से पदोचित पुरस्कृत करता/प्रभाकर फिर/स्वाभिमान से भर आया, जितनी थी उतनी ही पूरी-की-पूरी/उसकी तेज उष्णता वह उभर आई ऊपर ।/रुधिर में सनी-सी, भय की जनी ऊपर उठी-तनी भृकुटियाँ/लपलपाती रसना बनी, मानो आग की बूंदें टपकाती हों,/घनी "कहीं... 'नहीं, नहीं, किसी को छोडूंगी नहीं।/यूँ गरजती दावानल-सम धधकती वनी-सी बनी/सही-सही समझ में नहीं आता। पूरी खुली दोनों आँखों में/लावा का बुलावा है क्या ?/भुलावा है यह ! बाहर घूर रहा है ज्वालामुखी/तेज तत्त्व का मूल-स्रोत/विश्व का विद्युत्-केन्द्र । संसार के कोने-कोने में/तेज तत्त्व का निर्यात यहीं से होता है, जिसके अभाव में यातायात ठप्/जड़-जंगमों का ! चारों ओर अन्धकार, घुप्"।" (पृ. २३३) रौद्र और अद्भुत रस का परिपाकमय और विस्मय स्थायी भावों के साथ सम्मिलित हुआ है : "कुटिल व्याल-चालवाला/कराल-काल गालवाला
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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