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मूकमाटी-मीमांसा : : 335 प्रकाश दीक्षित ने भी शान्त रस के स्थायी भाव के रूप में आत्मज्ञान को मान्यता प्रदान की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ ‘रस समीक्षा' एवं डॉ. नगेन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'रस सिद्धान्त' में शान्त रस की अनुभूति को ब्रह्मानन्द सहोदर नाम दिया है । अन्यथा अध्यात्मवादी समस्त साहित्य, ज्ञान-वैराग्य सम्बन्धी काव्य, भगवद्-भक्ति सम्बन्धी गीत काव्य फिर किस रस के काव्य ग्रन्थ माने जाएँगे ? अत: यह निर्विवाद हो गया है कि शान्त रस ज्ञान-वैराग्य मूलक साहित्य का आधार है।
Sataraभूति के सम्बन्ध में रस सिद्धान्त की सबसे बड़ी देन शान्त रस की परिकल्पना है और सभी रसों की परिणति शान्त रस में होती है, इस स्पष्ट और निर्भ्रान्त स्थापना का श्रेय अभिनवगुप्त को है । पश्चिम के सौन्दर्य - शास्त्रियों ने भी यह स्वीकार किया है कि सौन्दर्यानुभूति में, रसानुभूति में, एक प्रकार की चिन्तनजनित शान्ति एवं विश्रान्ति का अनुभव होता है ।
प्राचीन भारतीय परम्परा में यह शान्ति तत्त्व अनेक क्षेत्रों में व्यापक रूप से गृहीत रहा है। बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य आदि इसी शान्त रस के आधार पर सृजित हुए हैं। पश्चिम के आधुनिक विचारक आई. ए. रिचर्ड्स ने संवेद सन्तुलन सिद्धान्त के रूप में शान्त रस की महत्त्वपूर्ण स्थापना की है, जो अभिनवगुप्त की धारणा के अनुरूप है । सनातन हिन्दू धर्मशास्त्रों में और काव्यों में अनेक काव्य वैराग्यपोषक हैं, अत: वे सभी शान्त रस सिक्त हैं । इसलिए यह सिद्ध होता है कि शान्त रस साहित्य का एक प्रधान और सर्वमान्य रस है ।
“शृंगारवीरकरुणहास्याद्भुतभयानकाः । रौद्रबीभत्सशान्ताश्च नवैति रसाः स्मृताः ॥”
उपर्युक्त नौ रसों के नौ स्थायी भाव इस प्रकार स्वीकार किए गए हैं- रति, हास्य, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और शम- ये नौ स्थायी भाव हैं ।
"रतिहास्यौ च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्साविस्मयशमा: स्थायीभावः प्रकीर्तितः ॥”
आधुनिक साहित्य समीक्षक डॉ. रामविलास शर्मा रसों की संख्या निर्धारण के विरोधी हैं। उनका कथन है कि नव या दसरसों की मेंड़ बाँधकर न तो साहित्य / काव्य सृजन हो सकता है और न ही अपनी मनोगत संवेदनाओं, भावनाओं, कल्पनाओं को उनमें बहाया जा सकता है। क्योंकि आज के मानव का जीवन इतनी विविधताओं, समस्याओं, रंगों से आक्रान्त है कि उन सब अनुभूतियों को सीमित रसों के बन्धन में बाँधकर प्रतिभा के प्रकाश की पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है।
आचार्य श्री विद्यासागर द्वारा रचित 'मूकमाटी' महाकाव्य को रस सिद्धान्त और रसानुभूति के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि इस महाकाव्य में सभी प्रमुख रसों का संयोजन सफलतापूर्वक हुआ है। शान्त रस का परिणाम तो विविध संघटनाओं के साथ द्रष्टव्य है ।
अंग्रेजी साहित्य समीक्षक एलीसिओ वाइवास ने 'कविता क्या है' शीर्षक निबन्ध में लिखा है : "कलाकृति की बहुतवस्तुगत विशेषताओं का ज्ञान तभी होता है जब हम उस कृति के निर्माण, लक्ष्य और प्रभाव को पहचानने में सफल हों एवं कृतिकार के व्यक्तित्व के प्रकाश में हम उस कृति को देख सकें ।" इस कथन के अनुसार 'मूकमाटी' के रचयिता के व्यक्तित्व का अभिज्ञान आवश्यक है, तभी हम 'मूकमाटी' की विशेषताओं को ज्ञात कर सकेंगे ।
आचार्य श्री विद्यासागर बालयोगी, जैन धर्म और दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान्, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, अध्यात्म