________________
334 :: मूकमाटी-मीमांसा
"सूखा प्रलोभन मत दिया करो/स्वाश्रित जीवन जिया करो।” (पृ. ३८७) और अन्त में पाषाण शिला पर आसीन वीतराग साधु की वन्दना से आतंकी दल का आत्मशोधन हो जाना आदि लक्षणाव्यंजना के कलात्मक परिप्रेक्ष्य में ये प्रसंग अत्यन्त मोहक, अद्भुत, सुन्दर बन पड़े हैं।
रस-परिपाक, रस-सिद्धि की दृष्टि से 'मूकमाटी' पावन एवं रससिद्ध रचना है । बालब्रह्मचारी, महान् तपस्वी सन्त ने शृंगार रस की ऐसी पावन उद्भावना की है जैसे मेघों के आवरण के मध्य से धवल चाँदनी दृष्टिगत हो जाए। शृंगार के ऐसे पावन प्रसंग वर्णन सन्त-शिरोमणि से ही बन सकते हैं। इस महाकाव्य में आचार्यश्री ने वर्ण्य विषय से सम्बन्धित एवं वर्तमान जनजीवन के सामाजिक परिवेश की समस्याओं और जटिलताओं का समाधान आत्मशोधन के दर्शन-चिन्तन से किया है। नवरसों का विश्लेषण, ऋतुओं का वर्णन, प्रकृति चित्रण, मानव-प्रकृति से संश्लिष्ट विवरणों के साथ-साथ संगीत की स्वर लहरियों का आरोह-अवरोह, वैज्ञानिक खोजों, आयुर्वेदिक एवं ज्योतिष ज्ञान आदि इस महाकाव्य में पद-पद पर प्रतिबिम्बित होता है।
भाषा की दृष्टि से इस महाकाव्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना माना जाएगा। अर्थालंकार के भावबोध को शब्दालंकार की छटा में वेष्टित कर, शब्द संगठन को सन्धि और विच्छेद के माध्यम से नए अर्थ या विलोम का भाव प्रकट करना, शब्द-शक्ति और उसकी आत्मा को ध्वनि-प्रतिध्वनि के अनुरूप अर्थान्तरित करना आचार्यश्री की क़लम का अद्भुत जादू है, जो अतिमोहक है।
___ इस महाकाव्य का सृजन अन्य दर्शनों की मान्यता के समक्ष जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धातों के उद्घाटन हेतु हुआ है । यह कृति काव्य और अध्यात्म का सुन्दर समन्वय है । इसमें माटी के माध्यम से जीवन शोधन की अभिनव व्याख्या प्रस्तुत है । यह जीवन-मुक्ति का शास्त्र है । भोग और योग, भुक्ति और मुक्ति की रसायन प्रस्तुति है । यह महाकाव्य के तत्त्वों और गुणों से युक्त है । और वह उतना ही श्लाघ्य है जितने आचार्यश्री अपने तप एवं ज्ञान गरिमा से पूज्यत्व को प्राप्त हैं। 'मूकमाटी' में रस, छन्द, अलंकार संयोजन
भरत मुनि का नाट्य शास्त्र ही प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है, जिससे काव्यशास्त्रीय रस सिद्धान्त का सूत्रपात होता है । प्रत्येक अवधारणा के मूल उत्स को वेदों से सम्बद्ध करने की भारतीय परम्परा रही है । ब्रह्मा, सदाशिव, भरत, भरत तण्डु नन्दी, बासुकि आदि नाट्याचार्य एवं रसाचार्य का ऋण स्वीकार किया जाता है। उन्होंने माना कि उनके पूर्व रस की दो परम्पराएँ प्रचलित थीं। एक थी दुहिण की, जो साहित्यिक आठ ही रस मानते थे, दूसरी बासुकि की, जो शान्त रस नामक नौवाँ रस भी मानते थे। सूर साहित्य के प्रणयन के बाद वात्सल्य नामक दसवाँ रस प्रतिष्ठित हो गया।
वात्सल्य रस का शृंगार आदि किसी भी रस में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि वात्सल्य का स्थायी भाव स्नेह है, न कि प्रेम । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'चिन्तामणि' ग्रन्थ में श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और स्नेह की विशद व्याख्या करके इनमें स्पष्ट अन्तर निरूपित किया है। प्रेम में वह भाव नहीं है जो स्नेह में विगलित होता है। पति-पत्नी या प्रेमीप्रेमिका को जो प्रेम में भाव विकलता होती है वह माता और पुत्र के स्नेह-वात्सल्य भाव में इस प्रकार की भावना नहीं होती । उसी प्रकार शान्त रस की निष्पत्ति, उद्रेक और रसानुभूति के परिप्रेक्ष्य में किसी और रस में इसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। इसका स्थायी भाव निर्वेद-वैराग्य है।
इस रस के उद्रेक और परिपाक के सम्बन्ध में संस्कृत के अनेक विद्वानों ने बहुत कुछ विचार-विमर्श किया है। अभिनवगुप्त ने आचार्य भरत के आठ रसों के विरुद्ध शान्त रस को नौवाँ रस मानकर उसकी प्रतिष्ठा की है । और शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद, आत्मज्ञान, तत्त्वज्ञान माना है । भोज ने भी शान्त रस का स्थायी भाव 'सम' माना है । आनन्द