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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 333 एवं लगभग पाँच सौ पृष्ठों में विस्तृत है। इस प्रकार विशालता के परिप्रेक्ष्य में भी महाकाव्यत्व के गौरव को धारण करता हिन्दी के महाकाव्यों में रामचरितमानस', 'सूरसागर', 'कामायनी', 'प्रियप्रवास', 'साकेत', 'वर्द्धमान', 'कुरुक्षेत्र', 'सिद्धार्थ' आदि महाकाव्य परम्परागत परिभाषा की कसौटी पर कसने पर पूर्णत: खरे नहीं उतरते । किन्तु इसका आशय यह नहीं कि प्राचीन परम्परागत परिभाषा सदा के लिए ही नियामक है। परिवर्तनशील सामाजिक परिवेश में वैयक्तिक वैशिष्ट्य के प्रभाव से ये हिन्दी महाकाव्य अपनी पृथक् और मौलिक परिभाषा-गरिमा नियोजित कर चुके हैं। इस दृष्टिकोण से 'साकेत', 'प्रियप्रवास', 'कामायनी' अपनी मौलिक उद्भावनाओं, छायावादी शैली, सौन्दर्य एवं प्रतीकात्मक भाषा के कारण लक्षणों से भिन्न होने पर भी सर्वमान्य महाकाव्य के रूप में समादृत हैं। __कथानक की नूतनता, कल्पनाओं का नूतन उन्मेष, पात्रों एवं चरित्रों की नूतन भावप्रवणता के दृष्टिकोण से 'मूकमाटी' भी महाकाव्य की सीमा में आता ही है । धीरोदात्त, धीर प्रशान्त, धीर ललित नायक नायिकाओं के परम्परागत चौखटे में जड़ने से विद्रोहात्मक रचना-सौन्दर्य एवं व्यक्ति विशेष का अपना सांस्कृतिक जीवन-दर्शन, आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक वैशिष्ट्य के कारण 'मूकमाटी' महाकाव्य हिन्दी महाकाव्य की नूतन परिभाषा स्थापित करने का गौरव रखता है। प्रसाद की 'कामायनी' के प्रकाशन पर नियत मान्यताओं की विचारधारा वालों ने कामायनी'को समुचित समादर देने में संकोच का अनुभव किया था । तभी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे धुरन्धर समालोचकों ने काव्य कला एवं भाषा-शैली की दृष्टि से इसे हिन्दी का महाकाव्य समादृत किया था। आज के युग में हिन्दी में अनेक महाकाव्यों का प्रणयन हो चुका है, जिनमें प्राचीन परम्परा की सीमा-रेखाओं को तोड़ कर नवीन कथानक, मौलिक उद्भावनाओं, शैली का आकर्षक वैशिष्ट्य, सामाजिक-दार्शनिक चिन्तन, सांस्कृतिक गौरव एवं नूतन जीवन-दर्शन के कारण उन्हें महाकाव्य का गौरव प्राप्त है, उनकी तालिका लम्बी है। ___ 'मूकमाटी' का प्रणयन आधुनिक हिन्दी महाकाव्य श्रृंखला में एक उल्लेखनीय उपलब्धि माना जा रहा है। इसकी विशेषता यह है कि इस महाकाव्य में माटी जैसी तुच्छ, उपेक्षित, अकिंचन वस्तु को विषय बनाकर उसे परभाव से मुक्त कराकर अपने आप में, स्वयं में स्थापित कर विशुद्धता के प्रयास से मुक्ति के मंगल घट के रूपक द्वारा जीवन का साफल्य निरूपित करना है। आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जैन धर्म-दर्शन एवं साधना मार्ग के तपस्वी महान् सन्त हैं। जैन दर्शन का अपना मौलिक चिन्तन है, जो परभाव से पृथक् होकर स्वभाव में आकर, मुक्त होने की प्रक्रिया बतलाता है। वही जीवन की सफलता है । महान् सन्त आचार्यश्री से ऐसे ही महाकाव्य के रचना की सम्भावना अपेक्षित थी, जो पूरी हुई। कथावस्तु, पात्र और उनका चरित्र-चित्रण, मनोवैज्ञानिक भाव निरूपण, रस-परिपाक या रससिद्धि की दृष्टि से यह महाकाव्य सम्पूर्ण रूप से नवीनता से परिपूर्ण और स्तुत्य है । माटी अपने आप में तुच्छ है, क्योंकि उसमें प्रस्तर-कण परभाव रूप से विद्यमान हैं, विभाव रूप से सम्पृक्त हैं। आत्मशुद्धि के लिए, पर से निज को (प्रस्तर कणों की माटी से) पृथक् कर, अपने स्वभाव में, मृदुता में, सहजपने में आ जाना होता है। साधना से, तप से (अग्नि के संसर्ग से) शुद्ध हो जाना होता है । इस शुद्धता-विशुद्धता उपार्जन हेतु मन, वचन एवं काय की सरलता होना तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष जैसी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना आत्मा का मुक्ति-पथ पर आरूढ़ होना है। माटी को रचयिता आचार्यश्री इसी प्रक्रिया से साधना के पथ पर अग्रसर कराते हुए लोक मंगलकारी स्थिति तक पहुँचाते हैं। ऐसी ही प्रक्रिया द्वारा जीवन की यात्रा सफल होती है, लोक मंगलकारी होती है। माटी, कुम्भकार, पूजा-उपासना के उपकरण, स्वर्ण कलश से माटी के कलश की श्रेष्ठता, कथानायक का उसे आदर देना आदि का मनोरम चित्रण है । एक मच्छर के द्वारा आज की जीवन पद्धति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत होता
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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