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हिन्दी के महाकाव्य और 'मूकमाटी'
पं. दरबारी लाल जैन शास्त्री
महाकाव्य की कोई सार्वकालीन या सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है, क्योंकि विभिन्न युगों में उसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा है । महाकाव्य सृजन का एक सांस्कृतिक प्रयास है। महाकाव्य व्यष्टि जीवन की अभिव्यक्ति न होकर समष्टि के जीवन का चित्र होता है। उसमें मानव-जीवन की सामाजिक, सामयिक परिस्थितियों और विश्व जीवन की प्रचलित प्रवृत्तियों का प्रतिबिम्बन स्वत: ही हो जाता है । विश्व के महाकाव्य मनुष्यता की प्रगति के मार्ग में मील के पत्थर के समान हैं।
महाकाव्य में जीवन का सर्वांगीण चित्रण अंकित होता है । महाकाव्य की रचना युग जीवन के संघर्ष को व्यापक रूप में चित्रित करने के निमित्त से होती है । और सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवनादर्शों की प्रतिष्ठा का आग्रह होने के कारण महाकाव्य में प्रतिपादित जीवन दर्शन आदर्शवादी ही होता है।
आधुनिक युग में हिन्दी के महाकाव्यों की महानतम उपलब्धि उनका मानवतावादी दृष्टिकोण है । हिन्दी के महाकाव्यों का बाह्याकार भी संस्कृत में परिभाषित परिभाषा के नियमों के ही सर्वथा अनुरूप नहीं है। उदाहरणार्थ तुलसी कृत रामचरितमानस, प्रसादकृत 'कामायनी' एवं आचार्य विद्यासागरकृत 'मूकमाटी' द्रष्टव्य हैं । इन महाकाव्यों ने शास्त्रीय नियमों को ही नहीं महाकाव्य के गुणों को भी आत्मसात् कर लिया है । और ये महाकाव्य अपनी महार्घता के कारण ही लोक और शास्त्र में समादृत हैं।
महाकाव्य की इन विशेषताओं और परिभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में 'मूकमाटी' महाकाव्य सर्वथा समादरणीय है। डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने हिन्दी के महाकाव्यों में 'पृथ्वीराज रासो', 'पदमावत', 'आल्हा खण्ड', 'रामचरितमानस' और 'कामायनी'-इन पाँच को ही महाकाव्य लिखा है। डॉ. गोविन्द राम शर्मा, डॉ. प्रतिपाल सिंह, डॉ. श्याम नन्दन किशोर, डॉ. श्याम सुन्दर व्यास आदि ने अपने शोध प्रबन्धों में 'प्रिय प्रवास', 'साकेत, 'कृष्णायन', 'वैदेही वनवास' और 'साकेत सन्त' को महाकाव्य माना है। कुछ शोध प्रबन्धकारों ने 'कुरुक्षेत्र', 'रावण', 'एकलव्य', 'सिद्धार्थ', 'अंगराज', 'पार्वती' और 'वर्धमान' को महाकाव्य की श्रेणी में अंकित किया है । इन लेखकों, समालोचकों के शोध प्रबन्ध लिखे जाते समय तक 'मूकमाटी' का प्रकाशन नहीं हो पाया था । अत: वह महाकाव्य उनके दृष्टिगत नहीं हो पाया था।
महाकाव्य को इन गुणों से समन्वित होना मान्य हुआ है : १. वस्तु वर्णन २. कल्पनाशक्ति ३. मार्मिक प्रसंगों की सृष्टि ४. गरिमापूर्ण भाषा शैली- ये बाह्य सौन्दर्य के लिए एवं अन्तरंग पक्ष में- १. रसात्मकता २. महत् उद्देश्य और जीवन-दर्शन ३. मानवतावादी जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा ४. युगीन जीवनादर्शों की स्थापना ५. सांस्कृतिक उन्नयन में योगदान ६. उन्नत विचार दर्शन । इन्हें महाकाव्य सृजन के प्रतिमान और महाकाव्यालोचन के मानदण्ड कह सकते हैं।
हिन्दी महाकाव्य राष्ट्रीय जीवन का प्रतिनिधित्व, युगीन चेतना की अभिव्यक्ति, सामाजिक उत्थान, कलात्मक औदात्य एवं काव्यात्मक वैभव से सम्पन्न होने के कारण महाकाव्यों का भविष्य आशापूर्ण एवं आलोकमय है । वर्तमान युग के महाकाव्य हिन्दी भाषा और साहित्य की सर्वतोन्मुखी प्रगति के परिचायक हैं। हिन्दी के महाकाव्यों की श्रृंखला में 'मूकमाटी' महाकाव्य अपना अति मौलिक और गरिमामय स्थान रखता है।
'मूकमाटी' : हिन्दी महाकाव्य के सिद्धान्त और मूल्यांकन की दृष्टि से जब 'मूकमाटी' काव्य पर विचार करते हैं तो स्वत: सिद्ध हो जाता है कि यह काव्य संस्कृत भाषा के महाकाव्यों की तत्त्व संहिता के सिद्धान्तों के अनुसार भामह, दण्डी और कविराज विश्वनाथ की मान्यताओं से पृथक् अपनी मौलिक उद्भावनाओं, नूतनतम विषय कथानक, आकर्षक शैली, अनोखी विचार गरिमा के कारण अपनी अलग उपलब्धि स्थापित करता है । यह चार खण्डों में विभाजित