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________________ मूकमाटी-मीमांसा : : 331 महाकाव्यत्व : महाकाव्य के लक्षणों के अनुरूप इसे महाकाव्य कहना उचित नहीं है । परन्तु इसके विस्तृत आकार लगभग ५०० पृष्ठों में समाहित होने के कारण यह महाकाव्य कहलाने योग्य है । यह चार खण्डों में विभाजित है । प्रकृति चित्रण, आध्यात्मिक रोमांस, रस-छन्द - अलंकार का चित्रण, भारतीय संस्कृति चित्रण, गुरु-महिमा, दर्शन, नायक-नायिका मिलन आदि सभी का समावेश होने के कारण इसे हम महाकाव्य कह सकते हैं। अनुभूति पक्ष : महाकाव्य की सफलता की कसौटी काव्य के मर्मस्पर्शी स्थलों का चयन और उनके सरल चित्रण से मानी जाती है। इस दृष्टि से आचार्य श्री एक सफल कवि हैं। माटी की वेदना, व्यथा मार्मिकता से व्यक्त हुई है । करुणा साकार हो उठी है। शब्द-साधना से आन्तरिक अर्थों को कवि ने स्पष्ट किया है। नारी, सुता, दुहिता, कुमारी, स्त्री, अबला आदि शब्दों से आचार्यश्री ने महिलाओं के प्रति आदर भाव व्यक्त किए हैं। पूजा के उपकरण भी सजीव होकर वार्तालाप में निमग्न दिखाई देते हैं । अभिव्यक्ति पक्ष : आचार्य श्री - कवि के अन्तर में भावों का जो उद्दाम ज्वार उमड़ता है उसकी अभिव्यक्ति वह विविध काव्योपकरणों के माध्यम से करता है । भावों की प्रधानवाहिनी भाषा है। इसके अतिरिक्त शैली, अलंकारविधान, छन्द विधान आदि भावाभिव्यक्ति के अन्य उपकरण हैं। आचार्यजी के पास शब्दों का असीम भण्डार है, इसलिए भाषा उनकी चेरी है । उनके लिए उच्चारण मात्र शब्द है, शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना बोध है और बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना शोध है । कवि ने खण्ड दो में नव रसों को परिभाषित किया है। श्रृंगार की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की है। 'मूकमाटी' में शब्दालंकार और अर्थालंकारों की छटा नए सन्दर्भों में है। कम से कम ८० उदाहरण मैने इस काव्य में ऐसे देखे हैं जिनमें कवि की चमत्कारी अर्थान्वेषिणी दृष्टि का ज्ञान मिलता है । ध्वन्यात्मक, संगीतात्मक भाषा है । तुकान्त एवं अतुकान्त का चित्रण है। अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना- तीनों दृष्टिगत होती हैं । दर्शन : 'मूकमाटी' की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें जीवन दर्शन परिभाषित होता है । दूसरी बात यह है कि यह दर्शन आरोपित नहीं लगता है बल्कि अपने प्रसंग व परिवेश से उद्घाटित होकर शिक्षा प्रदान करता है। मुक्त छन्द के प्रवाह में जीवन की अनुभूति का चित्रण सन्त के आचरण में बदल कर प्रस्तुत किया है। जैन दर्शन की चारों खण्डों में संक्षिप्त रूप में व्याख्या की गई है। हिन्दी काव्य परम्परा में 'मूकमाटी' का स्थान : हिन्दी काव्यकानन के सौरभ - सिक्त - प्रसूनों में से एक 'मूकमाटी' है। आचार्यश्री विद्यासागर द्वारा प्रणीत यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की एक देदीप्यमान विभूति है, भारत और माँ भारती का गौरव है, कवि की कीर्ति का प्रथम अमर आधार है, 'मूकमाटी' एक सन्त की आत्मा की आवाज है, आध्यात्मिक रचना है। धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के सार को आज की भाषा में एवं मुक्त छन्द की मनोरम काव्यशैली में निबद्ध कर कविता रचना को नया आयाम देने वाली एक अनुपम कृति है । कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्ति-यात्रा का रूपक यह महाकाव्य है । इस कृति में जहाँ हमें स्वयं को और मानव के भविष्य को समझने की नई दृष्टि मिलती है और एक नई सूझबूझ के द्वारा हम अपने जीवन की दिशा को सत् मार्ग पर ले जा सकते हैं, वहीं आज की विकृत, विखण्डित समाज व्यवस्था के सुधार के लिए यह एक अनुपम उपलब्धि है । दर्शन के क्षेत्र में एवं सन्त काव्य परम्परा के क्षेत्र में ‘मूकमाटी' का स्थान अन्यतम है । 'मूकमाटी' को हिन्दी काव्याकाश का एक देदीप्यमान नक्षत्र नि:संकोच रूप से कहा जा सकता है। कसौटी पर कसने पर यह एक नीति ग्रन्थ भी है । समाज-व्यवस्था को पूर्ण रूप से नीतिपरक बनाने के लिए तथा आदर्शवाद की स्थापना के लिए 'मूकमाटी' का सहयोग सराहनीय है। आचार्य विद्यासागरजी ने लोक हितकारी साहित्य की रचना की है । [' दैनिक विश्व परिवार,' झांसी- उत्तरप्रदेश, १३ अक्टूबर, १९९५] O
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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