________________
मुक्ति की आकांक्षा और मूक वेदना का महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. मनुजी श्रीवास्तव 'सन्त' शब्द की उत्पत्ति प्रायः 'शान्त' या 'सत्य' से मानी जाती है । साधारण रूप से 'सन्त' शब्द का प्रयोग किसी पवित्रात्मा और सदाचारी पुरुष के लिए किया जाता है। कभी-कभी यह साधु या महात्मा का पर्याय भी समझ लिया जाता है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने कहा है : “यह उस व्यक्ति का बोध कराता है जिसने सत-रूपी परम तत्त्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठ कर उसके साथ तद्रूप हो गया हो।" सन्तों के लक्षण विभिन्न भक्तों के द्वारा प्रस्तुत वाणी के अनुसार ये हैं : " विषयों के प्रति निरपेक्ष रहने वाले, सत्कर्म करने वाले, किसी से वैर प्रदर्शित न करने वाले, निस्संग, निष्काम पुरुष सन्त होते हैं"-ये सभी विशेषताएँ 'मूकमाटी' के रचयिता आचार्य विद्यासागरजी में विद्यमान हैं।
कवि ने भौतिकता से दूर रह कर भी सहृदय के हृदय में यह भाव जागृत करने का सफल प्रयास किया है कि माटी जैसी दलित वस्तु आख़िर है तो नारी का सजीव रूप । उसके अन्दर वह वेदना है, वह अभिलाषा है कि कभी तो उसका नायक उसे अपनी नायिका बनाएगा । उसकी इस आकांक्षा को आचार्यजी ने अपने ज्ञानमय शब्द-पुष्पों से किस तरह वर्णित किया है, इसका अनुमान पाठक ही लगा सकते हैं। विद्यासागरजी की काव्य-प्रतिभा का यह चमत्कार है कि माटी जैसी निरीह, दलित वस्तु को महाकाव्य का विषय बना कर उसकी मूक वेदना और मुक्ति की अभिलाषा को वाणी दी है। कुम्भकार ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचान कर, कूट-छान कर, वर्ण संकर और कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का वर्णलाभ दिया है। फिर चाक पर चढ़ाकर, आग में तपाकर उसे ऐसी मंज़िल तक पहुँचाया है, जहाँ वह पूजा का मंगल घट बन कर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है। सर्वप्रथम प्रथम खण्ड - ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में धरती माँ के सम्मुख माटी अपना हृदय खोल कर सत्य कह रही है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, "अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ ! सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !
इसकी पीड़ा अव्यक्ता है/व्यक्त किसके सम्मुख करूँ !" (पृ. ४) धरती माँ अपनी दुखित बेटी की सारी बातों को सुन कर समझाते हुए कहती है कि संसार सत्य को स्वीकारता है और असत्य की जीत नहीं होती बेटे :
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९) खण्ड एक में ही स्पष्ट कर दिया है कि 'मूकमाटी' का सृजन वास्तव में “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (गीता,२/४७) के अर्थ को समझाता है। खण्ड दो की मुख्य विशेषता तो शीर्षकगत ही है । शीर्षक है- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं।' जब किसी वस्तु की प्राथमिक जानकारी नहीं होती तो उसका अनुसन्धान असम्भव है। कुम्भकार ने माटी को खोदने की प्रक्रिया को बदल-बदल कर माटी से भेंट की है । शोध और बोध की वास्तविकता का स्पष्टीकरण 'मूकमाटी' में इस प्रकार वर्णित है :
"बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है।/बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है,