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328 :: मूकमाटी-मीमांसा
साधक की साधना के विषय में कवि कहता है :
"...क्षमा धरना क्षमा करना/धर्म है साधक का
धर्म में रमा करना !" (पृ २८३) अवा से निकले हुए घट के भावों में कवि ने सन्तों के वज्र से कठोर और पुष्प से भी कोमल हृदय की अवधारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है :
0 “लो, कुम्भ को अवा से बाहर निकले/...अब दुर्लभ नहीं कुछ भी इसे
सब कुछ सम्मुख "समक्ष !/भक्त का भाव अपनी ओर
भगवान को भी खींच ले आता है।" (पृ. २९९) ० “पीयूष पायी हंस-परमहंस हो,/अपने प्रति वज्र-सम कठोर
पर के प्रति नवनीत "/मृदु...।” (पृ. ३००) सन्त समागम की महिमा का उल्लेख करते हुए कवि कहता है :
"सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने
इसमें कोई नियम नहीं है,/किन्तु वह/सन्तोषी अवश्य बनता है।" (पृ. ३५२) अन्त में सन्त कवि 'कुम्भ' के मुख से 'मंगल कामना' व्यक्त करता है :
“यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सबकी जीवन लता/हरित भरित विहँसित हो
गुण के फूल विलसित हों/नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/ बस!" (पृ.४७८) और, इस समीक्षा के अन्त में कुम्भकार के स्वर में स्वर मिला कर अपना विनम्र निवेदन करूँगा :
"यह सब/ऋषि-सन्तों की कृपा है,/उनकी ही सेवा में रत
एक जघन्य सेवक हूँ मात्र,/और कुछ नहीं।" (पृ. ४८४) अन्त में, सन्त कवि की ही वाणी में :
"विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !" (पृ. ४८८)
पृष्ठ३७०दीपा ले चल सकता है -..-आखें भी बन्द हो जाती हैं।