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326 :: मूकमाटी-मीमांसा
'संकर - दोष' से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव जीवन का औदार्य व साफल्य माना है । जिसने शुद्धसात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है 'मूकमाटी।" लोक मंगल की भावना से अभिषिक्त यह 'मूकमाटी' महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है । धरती माँ का यह सन्देश है :
'कल के प्रभात से / अपनी यात्रा का / सूत्र - पात करना है तुम्हें ! प्रभात • कुम्भकार आयेगा / पतित से पावन बनने, / समर्पण-भाव-स उसके सुखद चरणों में / प्रणिपात करना है तुम्हें / अपनी यात्रा का सूत्र -पात करना है तुम्हें !” (पृ. १६-१७)
प्रस्तुत खण्ड में समर्पण की भावना, स्नेह, औदार्य जैसे मानवीय गुणों को निरूपित किया गया है :
" दया का होना ही / जीव-विज्ञान का / सम्यक् परिचय है ।" (पृ. ३७) " वासना का विलास / मोह है, / दया का विकास / मोक्ष है/ भयंकर है, अंगार है !
एक जीवन को बुरी तरह / जलाती है एक जीवन को पूरी तरह / जिलाती है
/ शुभंकर है, शृंगार है ।" (पृ.३८)
"पापी से नहीं / पाप से / पंकज से नहीं, / पंक से / घृणा करो । अयि आर्य ! / नर से / नारायण बनो / समयोचित कर कार्य ।" (पृ. ५०-५१ )
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इस प्रकार प्रथम खण्ड ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में विभिन्न मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ ही कुम्भकार माटी में मिले कंकर कणों को छान कर, जो वर्ण संकर हैं, मंगल घट का सार्थक रूप देना चाहता है ।
दूसरे खण्ड ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि अपने दार्शनिक विचारों को अभिव्यक्त करता हुआ कहता है
:
" पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है । / और अन्यत्र रमना ही / भ्रमना है / मोह है, संसार है।” (पृ. ९३)
सन्त कवि ने स्वीकारा है :
" बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि / शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं ।" (पृ. १०६ - १०७ )
कुम्भकार रचनाकार है जो क्षमा की मूर्ति है :
" अरे सुनो ! / कुम्भकार का स्वभाव - शील / कहाँ ज्ञात है तुम्हें ? जो अपार अपरम्पार / क्षमा- सागर के उस पार को / पा चुका है।