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दार्शनिक पृष्ठभूमि पर सृजित अद्वितीय महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. रामचरित्र सिंह दिगम्बर जैन सन्त आचार्यश्री विद्यासागर द्वारा प्रणीत 'मूकमाटी' महाकाव्य परम्परा की अनुपम एवं अद्भुत कलाकृति है । प्रस्तुत महाकाव्य जहाँ आधुनिक कविता का उत्कृष्ट निदर्शन है वहीं यह आध्यात्मिक भावभूमि पर आधारित जीवन-जगत् की अनुपम झाँकी प्रस्तुत करने वाली दार्शनिक पृष्ठभूमि पर सृजित ऐसी संरचना है जो अपने में अद्वितीय है । महाकाव्य के प्रस्तवन' में इसे सहज ही स्वीकारा गया है : 'मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। सबसे पहली बात तो यह है कि माटी जैसी अकिंचन, पद-दलित
और तुच्छ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाने की कल्पना ही नितान्त अनोखी है । दूसरी बात यह है कि माटी की तुच्छता में चरम भव्यता के दर्शन करके उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मुक्ति की मंगल-यात्रा के रूपक में ढालना कविता को अध्यात्म के साथ अ-भेद की स्थिति में पहुँचाना है। इसीलिए आचार्यश्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है-सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई, लोकमंगल को साधती है । यह सन्त तपस्या से अर्जित जीवन-दर्शन को अनुभूति में रचा-पचा कर सबके हृदय में गुंजरित कर देना चाहते हैं। निर्मल-वाणी और सार्थक सम्प्रेषण का जो योग उनके प्रवचनों में प्रस्फुटित होता है-उसमें मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्यानुभूति की अन्तरंग लय समन्वित करके आचार्यश्री ने इसे काव्य का रूप दिया है।" काव्य का प्रारम्भ महाकाव्योचित गुणों के आधार पर प्रकृति चित्रण से होता है :
"निशा का अवसान हो रहा है/...प्राची के अधरों पर मन्द मधुरिम मुस्कान है/...अध-खुली कमलिनी/डूबते चाँद की
चाँदनी को भी नहीं देखती/आँखें खोल कर।" (पृ. १-२) प्रकृति का मानवीकरण कितना मोहक है :
"अबला बालायें सब/तरला तारायें अब/छाया की भाँति/ अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं/कहीं"सुदूर"दिगन्त में"
दिवाकर उन्हें/देख न ले, इस शंका से।" (पृ. २) प्रकृति के माध्यम से ही कवि ने जीवन के शाश्वत प्रवाह का सन्देश दिया है :
“मन्द-मन्द/सुगन्ध पवन/बह रहा है;/बहना ही जीवन है
बहता-बहता/कह रहा है।” (पृ. २-३) प्रस्तुत काव्य के मूल में जैन दर्शन पूर्णरूपेण समाहित है । ग्रन्थ के आमुख रूप 'मानस-तरंग' में ही कहा गया है : “कुछ दर्शन, जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं।" यह मान्यता उनकी दर्शन-विषयक अल्पज्ञता को ही सूचित करती है । ज्ञात रहे, कि श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं । इसीलिए जैन-दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है। ...इसीलिए