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322 :: मूकमाटी-मीमांसा
" 'स्व' यानी अपना/'प' यानी पालन-संरक्षण/और/'न' यानी नहीं, जो निज-भाव का रक्षण नहीं कर सकता/वह औरों को क्या सहयोग देगा ?"
(पृ. २९५) इसी प्रकार 'कला' शब्द में भी नवीन अर्थ का आधान किया गया है। कला-क = आत्मा-सुख, ला = लानादेना। आचार्यश्री के शब्दों में:
"कला शब्द स्वयं कह रहा कि/'क' यानी आत्मा-सुख है 'ला' यानी लाना-देता है/कोई भी कला हो/कला मात्र से जीवन में
सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है।" (पृ. ३९६) २. वर्ण-सन्निधि : संगीत के सप्त स्वरों में वर्ण-सन्निधि द्वारा नवीन अर्थ की सद्भावना की गई है :
"सारे गम यानी/सभी प्रकार के दुःख प'ध यानी ! पद-स्वभाव/और/नि यानी नहीं, दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, ...इन सप्त-स्वरों का भाव समझना ही
सही संगीत में खोना है/सही संगी को पाना है।” (पृ. ३०५) ३. पद-भंग : अनेक स्थलों पर पद-भंग द्वारा शब्दों में नवीन अर्थों का सन्धान किया गया है । यहाँ लेखक का बुद्धि
कौशल, शब्दार्थ भंगिमा तथा कल्पना वैभव देखते ही बनता है। 'मूकमाटी' से इस प्रकार के कुछ शब्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं : गदहा : गद-हा = रोग हन्ता
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो !/यानी/गद का अर्थ है रोग हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ
"बस/और कुछ वांछा नहीं/गद-हा "गदहा!" (पृ. ४०) संसार : सं-सार = सम्यक् रूप में सरकने वाला
"सृ धातु गति के अर्थ में आती है, सं यानी समीचीन/सार यानी सरकना
जो सम्यक् सरकता है/वह संसार कहलाता है।" (पृ. १६१) नियति : नि-यति = निज में ही स्थिरता
“'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है
अपने में लीन होना ही नियति है/निश्चय से यही यति है।" (पृ. ३४९) वैखरी : वै-खरी = निश्चय ही खरी
“सज्जन-मुख से निकली वाणी/'वै' यानी निश्चय से 'खरी' यानी सच्ची है,/सुख-सम्पदा की सम्पादिका।" (पृ. ४०३)