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'मूकमाटी': शब्दार्थ तो देखो
डॉ. रामस्वरूप आर्य शब्द को ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार ब्रह्म ‘एकोऽहं बहुस्याम' अर्थात् एक हो कर भी अनेक रूप धारण करता है, उसी प्रकार शब्द में भी अनेक अर्थच्छटाएँ समाहित रहती हैं । जन्मजात रससिद्ध कवि अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से उनमें नए अर्थों की उद्भावना करते हैं । 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचयिता आचार्यश्री विद्यासागरजी भी एक ऐसे ही रससिद्ध कवि हैं, जिन्होंने सर्वथा उपेक्षित मूकमाटी को वाणी दी है तथा माटी से घट तक की यात्रा का चिन्तनपरक सरस वर्णन प्रस्तुत किया है। उनकी इस रचना का अध्ययन- मनन करते हुए मेरे मन में सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी की निम्नलिखित पंक्तियाँ निरन्तर गूंजती रही हैं :
"माटी मोल न किछु अहै औ माटी सब मोल ।
दृष्टि जो माटी सों करै माटी होइ अमोल ॥" 'मूकमाटी' महाकाव्य का महत्त्व कई दृष्टियों से है- विषय का चयन, गुरु-गम्भीर चिन्तन, भाव प्रवणता, प्रस्तुतीकरण, आलंकारिक सौन्दर्य तथा शैली सभी दृष्टियों से यह एक अनूठा महाकाव्य है। आचार्यश्री ने अपनी मौलिक उद्भावनाओं के आधार पर अनेक शब्दों में नवीन अर्थों का आधान किया है तथा उन्हें नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है। 'मूकमाटी' के 'प्रस्तवन' (पृ.VII) में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने ग्रन्थ के रचनाकार के इस गुण की ओर इंगित करते हुए लिखा है- "कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नयी-नयी-धार देते हैं, नयी-नयी परतें उघाड़ते हैं। शब्द की व्युत्पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती ही है, हमें उसके माध्यम से अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों का दर्शन होता है।" इस लेख में 'मूकमाटी के कुछ ऐसे ही शब्दार्थों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।
शब्दों में नवीन अर्थों के आधान हेतु आचार्यश्री ने मुख्य रूप से पाँच पद्धतियों का आश्रय ग्रहण किया है : १. वर्ण विश्लेषण २. वर्ण सन्निधि ३. पद भंग ४. निर्वचन
५. वर्ण विपर्यय १. वर्ण-विश्लेषण : वर्ण-विश्लेषण के अन्तर्गत शब्द के एक-एक वर्ण का विश्लेषण करके उनके अर्थों के समवाय से
नवीन अर्थ की उद्भावना की गई है, यथा- कुम्भ- कुं = धरती, भ = भाग्य । इनके आधार पर आचार्यश्री 'कुम्भकार' का अर्थ भाग्य-विधाता सिद्ध करते हैं :
“युग के आदि में/इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।" (पृ.२८) स्वप्न - स्व = अपना, प् = पालन, संरक्षण, न = नहीं। तीनों वर्गों को मिला कर अर्थ हुआ- 'निज-भाव का रक्षण नहीं।' आचार्यश्री इसे इस रूप में प्रस्तुत करते हैं :