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यह :
दृष्टि की सूक्ष्मता देखने की आँखें भी कवि की बहुत दूरदर्शी होती हैं, देखिए :
मूकमाटी-मीमांसा :: 319
"आँखों की रचना यह / ऐसे कौन से परमाणुओं से हुई है
..
जब आँखें आती हैं तो / दु:ख देती हैं ! / जब आँखें जाती हैं -- तो
दुःख देती हैं !/ कहाँ तक और कब तक कहूँ,
जब आँखें लगती हैं... तो / दुःख देती हैं !
आँखों में सुख है कहाँ/ ये आँखें / दु:ख की खनी हैं सुख की हनी हैं । " (पृ. ३५९-३६०)
सोना और माटी का अन्तर कितने विलक्षण ढंग से किया है सन्त रचनाकार ने, अद्भुत और अनुपम दृष्टि है
"तुम स्वर्ण हो / उबलते हो झट से / माटी स्वर्ण नहीं है / पर
स्वर्ण को उगलती अवश्य, / तुम माटी के उगाल हो !” (पृ. ३६४-३६५)
वर्तमान के सामाजिक व्यवस्था के वादों से रचनाकार भली-भाँति परिचित है। देखिए, एक जगह साम्यवाद किस तरह उभरा है :
" तन के अनुरूप वेतन अनिवार्य है, / मन के अनुरूप विश्राम भी । मात्र दमन की प्रक्रिया से / कोई भी क्रिया / फलवती नहीं होती है,
केवल चेतन-चेतन की रटन से, / चिन्तन-मनन से / कुछ नहीं मिलता !" (पृ. ३९१)
प्रकृति और पुरुष के सम्बन्धों को व्याख्यायित किस सहज ढंग से इस कृति में किया गया है, देखिए :
" पुरुष और प्रकृति / इन दोनों के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना / मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र !
खेल खेलने वाला तो पुरुष है / और / प्रकृति खिलौना मात्र ! स्वयं को खिलौना बनाना / कोई खेल नहीं है ।" (पृ. ३९४)
कृति में कृतिकार के परिवेश का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । कदाचित् इसीलिए 'मूक माटी' में 'सेठ' एक खास चरित्र का प्रतीक लिया गया है और इसके इर्दगिर्द एक पूरी समाज की प्रवृत्तियों का बहुदृष्टिकोणीय विवेचन भी
हुआ है :
" बहुविध व्यंजन उपेक्षित हुए हैं, / उसी का परिणाम है कि दाह-रोग का प्रचलन हुआ है / जिससे सेठ जी भी घिर गये हैं / और सत्त्व - शून्य ज्वार के दलिया के साथ / सार-मुक्त छाछ का सेवन दरिद्रता को निमन्त्रण देना है।" (पृ. ४१४)
कदाचित् इसीलिए आतंकवाद को भाषित करते समय रचनाकार की दृष्टि एकांगी प्रतीत होती है :
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'यह बात निश्चित है कि / मान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है।" (पृ. ४१८)