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318 :: मूकमाटी-मीमांसा
आत्मा में डूबने का अपना आनन्द है । ऊर्जा के आरोहण का मज़ा कुछ और ही है। रचनाकार ने घट और शिल्पी के माध्यम से बड़े करीने से यह तथ्य सँजोया है :
"ग्राहक के रूप में आया सेवक/चमत्कृत हुआ/मन-मन्त्रित हुआ उसका तन तन्त्रित-स्तम्भित हुआ/कुम्भ की आकृति पर/और शिल्पी के शिल्पन चमत्कार पर ।/यदि मिलन हो/चेतन चित् चमत्कार का फिर कहना ही क्या !/चित् की चिन्ता, चीत्कार चन्द पलों में चौपट हो चली जाती/कहीं बाहर नहीं,
सरवर की लहर सरवर में ही समाती है।” (पृ. ३०६) जो कथित विद्वान् इस दुनिया को केवल अर्थशास्त्र के तराजू पर तौलते हैं, रचनाकार उनसे दो टूक कह देता
"धनिक और निर्धन-/ये दोनों/वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं आँक सकते,/कारण,/धन-हीन दीन-हीन होता है प्राय:
और/धनिक वह/विषयान्ध, मदाधीन !!" (पृ. ३०८) जीवन कला के बारे में रचनाकार ने काव्य मन्त्र दिया है :
"अधरों पर मन्द मुस्कान हो,/पर परिहास नहीं। उत्साह हो, उमंग हो/पर उतावली नहीं।/अंग-अंग से
विनय का मकरन्द झरे,/पर,दीनता की गन्ध नहीं।" (पृ. ३१९) मन और तन की अद्भुत गुत्थी है जो आज तक अनसुलझी है । रचनाकार ने इसे अपनी तरह बिम्बित किया
"इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं/तन यह भवन रहा है, भवन में बैठा-बैठा पुरुष/भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है
वासना की आँखों से/और/विषयों को ग्रहण करता रहता है।" (पृ. ३२९) श्रमण और सन्तों की वृत्तियों की व्याख्या देखिए :
"कैसा भी हो, अशन हो/उदराग्नि शमन करना है ना! और/यही अग्नि-शामक वृत्ति है श्रमण की/सब वृत्तियों में महावृत्ति ! पराग-प्यासा भ्रमर-दल वह/कोंपल-फूल-फलों-दलों का सौरभ सरस पीता है/पर उन्हें,/पीड़ा कभी न पहुँचाता;
...और यही तो/भ्रामरी-वृत्ति कही जाती सन्तों की!" (पृ. ३३३-३३४) माटी का मन्थन बारीकी से करते-करते रचनाकार उसके पूजने का अर्थ स्पष्ट करता है :
"जहाँ तक माटी-रज की बात है,/मात्र रज को कोई/सर पर नहीं चढ़ाता मूढ़ -मूर्ख को छोड़ कर ।/रज में पूज्यता आती है चरण-सम्पर्क से।"(पृ.३५८)