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आत्मावलोकन को प्राय: सभी आदर्शवादी उचित ठहराते हैं पर विद्यासागरजी परम्परा से हटकर अकाट्य तर्क
प्रस्तुत करते हुए कहते हैं :
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मूकमाटी-मीमांसा :: 317
रचनाकार की आकांक्षा कृति में गूंज उठती है। यह गूँज साधारण कवि की नहीं, साधक रचनाकार की है :
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अपराधियों की पिटाई के लिए | / प्राय: अपराधी - जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते, / और उन्हें / पीटते-पीटते टूटतीं हम । इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? / यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है या/मनमाना ‘तन्त्र' है !” (पृ. २७१)
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" अपनी कसौटी पर अपने को कसना / बहुत सरल है, पर सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है, / क्योंकि,
अपनी आँखों की लाली / अपने को नहीं दिखती है ।
एक बात और भी है, कि / जिस का जीवन औरों के लिए / कसौटी बना है
वह स्वयं के लिए भी बने / यह कोई नियम नहीं है।" (पृ. २७६)
" मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है / स्व-पर दोषों को जलाना परम-धर्म माना है सन्तों ने ।” (पृ. २७७) "विषयों और कषायों का वमन नहीं होना ही
उनके प्रति मन में / अभिरुचि का होना है।" (पृ. २८० )
“दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ / परन्तु, / आह की तरंग भी
कभी नहीं उठे / इस घट में संकट में । / इसके अंग-अंग में / रग-रग में विश्व का तामस आ भर जाय / कोई चिन्ता नहीं,
शब्दों की सिद्धि सार्थक कविता है और आचार्य विद्यासागर ने इसमें महारत हासिल की है। शव और शिव का उपयोग रागी और विरागी में कितनी खूबसूरती से किया गया है कि एक मद्यपान में और दूसरा आत्म-ध्यान में खोया है,
पर :
किन्तु, विलोम - भाव से / यानी / तामस स ंम ंता ं ं!” (पृ. २८४)
" ध्यान की बात करना / और / ध्यान से बात करना
इन दोनों में बहुत अन्तर है - / ध्यान के केन्द्र खोलने - मात्र से ध्यान में केन्द्रित होना सम्भव नहीं ।" (पृ. २८६ )
" एक शव के समान / निरा पड़ा है,
और एक / शिव के समान / खरा उतरा है ।" (पृ. २८६ )
" दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय से
अध्यात्म का झरना झरता है । / दर्शन के बिना अध्यात्म - जीवन
चल सकता है, चलता ही है / पर, हाँ ! / बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं । ... बिना सरवर लहर नहीं ।" (पृ. २८८ )