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मूकमाटी-मीमांसा
और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ / कथाकार नहीं ।" (पृ. २४५)
नई कविता की तरह छन्द मुक्त होते हुए भी इस काव्य में जहाँ गीतात्मकता है वहीं उत्कृष्ट तथ्य यह है कि काव्य में एक सार्थक और सुलझा हुआ सम्प्रवाह है। जटिलता भाषा की भले किसी पाठक को लगे, पर भावों की किंचित् भी नहीं है। नई कविता की भाँति इस पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि ऊटपटांग बिम्ब-विधान द्वारा कुछ भी लिख दिया गया है - 'खुद लिखे खुदा बाँचे' जैसा ।
प्रकृति की एक और बानगी देखिए :
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"कलियाँ खुल खिल पड़ीं / पवन की हँसियों में, छवियाँ घुल-मिल गईं / गगन की गलियों में,
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नयी उमंग, नये रंग / अंग-अंग में नयी तरंग
नयी ऊषा तो नयी ऊष्मा / ... नया मंगल तो नया सूरज
नया जंगल तो नयी भू-रज ।" (पृ. २६३ )
“उत्तुंग - -तम गगन चूमते / तरह-तरह के तरुवर / छत्ता ताने खड़े हैं, श्रम-हारिणी धरती है / हरी-भरी लसती है
जीवन का यह पथ सरल नहीं है। बिना तप के कर्मों के आवरण हटता नहीं और बिना इसे हटाए आत्मा परम होती नहीं । इसीलिए आचार्यश्री कहते हैं:
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धरती पर छाया ने दरी बिछाई है । / फूलों-फलों पत्रों से लदे लघु-गुरु गुल्म- गुच्छ / श्रान्त - श्लथ पथिकों को
मुस्कान - दान करते-से ।” (पृ. ४२३)
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'आग की नदी को भी पार करना है तुम्हें, / वह भी बिना नौका !
हाँ ! हाँ !! / अपने ही बाहुओं से तैर कर,
तीर मिलता नहीं बिना तैरे ।" (पृ. २६७)
" निरन्तर साधना की यात्रा / भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर/ बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए ।" (पृ. २६७ )
श्रावक और सन्तों में मूलभूत अन्तर सदैव स्मरण रखना होगा। आचरण, धन-सम्पदा से ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान से भी सदा आगे रहा है। इसलिए कृति में कहा गया है :
"असंयमी संयमी को क्या देगा ? / विरागी रागी से क्या लेगा ?" (पृ. २६९ )
आत्मा की साधना में रत जिन-मुनि समाज की व्यवस्था और विकास के आरोहों -अवरोहों से अपरिचित नहीं हैं । गणतन्त्र और धनतन्त्र की व्याख्याओं को स्पष्ट करते हुए वे लकड़ियों के माध्यम से कहलवाते हैं :
" कभी - कभी हम बनाई जाती / कड़ी से और कड़ी छड़ी