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314 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसी का परिणाम है ।/बबूल के टूठ की भाँति
मान का मूल कड़ा होता है।” (पृ. १३१) हास्य के बारे में आम धारणा से जैन धर्म में विपरीत विचार हैं । रचनाकार ने किस खूबी से यह बात कही है देखिएगा:
"खेद-भाव के विनाश हेतु/हास्य का राग आवश्यक भले ही हो किन्तु वेद-भाव के विकास हेतु/हास्य का त्याग अनिवार्य है
हास्य भी कषाय है ना!" (पृ. १३३) संयम और साधना के आध्यात्मिक क्षेत्र में भी संगीत और प्रेम जैसे शब्द अपना अर्थ रखते हैं। रचनाकार सलीके से इन्हें परिभाषित करता है :
"संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है और
प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।” (पृ. १४४-१४५) रचनाकार संसार से विरक्त हैं पर संसार के दुःखों के कारणों पर उसकी पकड़ कम नहीं है वरन् कुछ ज़्यादा ही सारवान् है । यही कारण है कि कथनी-करनी के अन्तर को उन्होंने गहराई से समझा है :
"उस पावन पथ पर/दूब उग आई है खूब !/वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर/केवल कथनी में करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की/भीड़ के कारण !" (पृ.१५१-१५२) इसी पृष्ठ १५२ पर पंक्तियाँ हैं :
"जिसे पथ दिखाया जा रहा है/वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं,
औरों को चलाना चाहता है।" प्रथम पंक्ति इस तरह हो सकती है :
"जो पथ दिखा रहा है/वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं,
औरों को चलाना चाहता है।" यद्यपि आशय स्पष्ट है। ध्यान ओझल होने के कारण कदाचित् ऐसा हुआ होगा। इतना अधिक उद्धृत करने योग्य इस कृति में है कि क्या छोड़ा जाय ? उत्थान-पतन का आमुख रचनाकार ने कितने छोटे सूत्र में कह दिया है जो देखते ही बनता है :
"विकास के क्रम तब उठते हैं/जब मति साथ देती है जो मान से विमुख होती है,/और/विनाश के क्रम तब जुटते हैं जब रति साथ देती है/जो मान में प्रमुख होती है।
उत्थान-पतन का यही आमुख है।" (पृ. १६४) अंकों का भाव, श्वान और सिंह में अन्तर, अन्य पशुओं की प्रवृत्ति, अन्तर्निहित सूक्ष्म व्याख्या आदि रचनाकार