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मूकमाटी-मीमांसा :: 313
और/सब को छोड़कर/अपने आप में भावित होना ही
मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०) 0 “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है
____ और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है ।" (पृ. १११) रचनाकार की सूक्ष्मदर्शिता कहीं-कहीं काव्य के अत्यन्त अनुकूल परिलक्षित होती है :
0 “मौन की मौनता गौण कराता हो/और/मौन गुनगुनाता है
उसे जो सुने, वही बड़ा है मौन से।" (पृ. ११८) 0 “आस्था का दर्शन आस्था से ही सम्भव है
न आँखों से, न आशा से।" (पृ. १२१) अनेक जगह तुक और शाब्दिक व्यंजना के कारण न समझ आने वाली जटिलता भी उत्पन्न हो जाती है । पूरे महाकाव्य में यदि बोधगम्यता भी दृष्टि में रहती तो यह सामान्य जन को भी उपयोगी हो सकता था। केवल चन्द लोगों के लिए या मुनिवर की जय-जयकार बोलने के लिए दिखावे का माध्यम भी नहीं बनता।
“न सरिता रहे, न सागर !/यह सरकन ही सरिता की समिति है,
यह निरखन ही सरिता की प्रमिति है।” (पृ. ११९-१२०) अब सरिता की सागर की ओर सरकन तक तो बात स्पष्ट है, पर समिति का यहाँ आशय उलझावपूर्ण प्रतीत होता है । इसी तरह व्यंग्य के भी काव्य में दर्शन होते हैं पर कहीं-कहीं झुठलाने वाली स्थापनाएँ प्रतीत होती हैं :
"वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं।" (पृ. १२३) अब राष्ट्रपति से लेकर भृत्य तक, सभी वेतन या ऐसा ही कुछ भरण-पोषण के लिए धन के रूप में प्रतिमाह प्राप्त करते हैं तो क्या वे सभी वतन की ओर कम ध्यान देते हैं ? और व्यापारी एवं निजी मोक्ष की कामना में रत संसारसाधु, वतन का क्या ज़्यादा ध्यान रखते हैं ? यह विचारणीय है। क्योंकि इन पंक्तियों का आशय, रचनाकार के मन में कुछ भी हो पर प्रत्यक्ष रूप से यह शब्द-जाल की गले न उतरने वाली असफलता है। 'स' का कमाल देखिए :
"सुत-सन्तान की सुसुप्त शक्ति को/सचेत और शत-प्रतिशत सशक्त-/साकार करना होता है, सत्-संस्कारों से ।
सन्तों से यही श्रुति सुनी है।” (पृ. १४८) मनोविकारों के चित्रण और शमन का सुन्दर उपक्रम हैं ये पक्तियाँ । क्रोध को पाप का मूल बताते हुए ऋषि-रचनाकार बहुत स्पष्ट कहते हैं :
"वीर रस से तीर का मिलना/कभी सम्भव नहीं/और/पीर का मिटना त्रिकाल असम्भव !/...इसके सेवन से/उद्रेक-उद्दण्डता का अतिरेक जीवन में उदित होता है,/पर पर अधिकार चलाने की भूख