SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 310 :: मूकमाटी-मीमांसा __ और सुनो,/विलम्ब मत करो/पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) इसमें कबीर का फक्कड़पन और गर्वीलापन भले न हो पर तुलसी-सी विनम्रता अवश्य परिलक्षित होती है। __ माटी का दर्द अपनी चरम सीमा पर उभरा है इस कृति में । यह कबीर का भी विषय था परन्तु तेवर भिन्न हैं : - "जो घर के आपना चले हमारे साथ।" 0 "माटी कहे कुंभार से तूं क्या रूंधे मोहि । इक दिन ऐसा आयगा मैं सैंधूंगी तोहि ॥" रचनाकार की प्रतिबद्धता जब किसी विचारधारा से हो जाती है तो वह रचनाकार कम रह पाता है सम्बन्धित विचारधारा का प्रवक्ता अधिक हो जाता है। मेरे कतिपय साथी रचनाकार भी किसी विशेष विचारधारा से प्रतिबद्ध हैं और निश्चय मानिए कि उनका सहज शिल्प और प्राकृतिक रचनाकार कहीं खो गया है । अपनी लावी में, अपनी पत्रिकाओं में भले वे तीसमारखाँ बन जाएँ पर है यह शुतुरमुर्गी अदा ही। कहने के लिए वे कहने लगते हैं बिना विचारधारा के सृजन कैसा? पर मैं सोचता हूँ सृजन के लिए विचार आवश्यक हैं, न कि सीमाओं में बँधी धारा । धारा का प्रवाह तो रचना में होना चाहिए न कि विचारबद्धता में, उद्गम में, रचना का विषय प्रतिबद्ध होना चाहिए न कि किसी धारा विशेष से सम्बद्ध । विद्यासागरजी ने कई जगह यह प्रतिबद्धताएँ तोड़ी भी हैं, जबकि वे संयमित ही नहीं इन्द्रियविजयी सन्त हैं पर कवि की तरह जब सोचते हैं तो रचना में शृंगार भी खूब उभरता है। प्राकृतिक शृंगार की एक बानगी देखते बनती है : 0 "फूल ने पवन को/प्रेम में नहला दिया,/और बदले में/पवन ने फूल को/प्रेम से हिला दिया !" (पृ. २५८) ० "बीचों-बीच मुख है/और/सावरणा-साभरणा/लज्जा का अनुभव करती, ____ नवविवाहिता तनूदरा/यूँघट में से झाँकती-सी..!" (पृ. ३०) । 0 “सागर से शशि की मित्रता हुई/अपयश-कलंक का पात्र बना शशि किसी रूपवती सुन्दरी से/सम्बन्ध नहीं होने से शशि का सम्बन्ध निशा के साथ हुआ, सो सागर को श्रेय मिलता यह !" (पृ. २२९) हालाँकि स्वभावत: जैनत्व उनकी कलम पर हावी हुआ है और होना अनुचित भी नहीं, कारण कि रचनाकार का उद्देश्य मात्र कविता कला में खोना नहीं है वरन् कविता तो उन्हें एक सोपान है आत्मत्व तक पहुँचने का, पहुँचाने का । इसीलिए काव्य के विषय का चयन भी अत्यन्त सयानेपन से किया गया है । माटी पद-दलित माटी, लेकिन कुम्भकार अपने श्रम से इसकी परिणति कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है । और विद्यासागरजी इस माध्यम से वह सभी कुछ सन्देश दे देते हैं, जो वे सोचते हैं और आत्मत्व के लिए आवश्यक है । एक दक्षिण भारतीय क़लमकार हिन्दी की साधना इतने उत्कृष्ट स्तर तक कर, शब्दों को क़लम की नोक पर भावनाओं के अनुरूप थिरकाने का प्रयास कर, मन तो जीत ही लेता है । यद्यपि काव्य में शब्दों की तोड़-मरोड़ क्षम्य है परन्तु कई जगह लिंग विषमता अथवा अनावश्यक तोड़मरोड़ या तो रचनाकार पर दक्षिण भारतीय प्रभाव के कारण हुआ या सहजता के अभाव में, यथा :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy