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________________ दक्षिण भारतीय कलमकार की हिन्दी-साधना की फलश्रुति : 'मूकमाटी' कैलाश मड़बैया 'मूकमाटी' के रचयिता आचार्य विद्यासागर सर्वोपरि मुनि हैं, जैन सन्त हैं – आचरण के धनी, तप:पूत और आज के सन्तों में जिनकी छवि भी शीर्ष स्तरीय है, बाद में वे कवि और लेखक हैं । जैन ही नहीं, जैनेतर देशवासी भी जिनके दर्शन और श्रवण का लाभ लेना चाहते हैं--नि:स्वार्थ, क्योंकि जैन सन्त निर्ग्रन्थ और दिगम्बर, भला क्या दे सकता है ? परन्तु फिर भी विचारों के पारखी भले ही कम हों, पर हवा में बहने वाले भक्तों की भीड़ की इस देश में आज भी कमी नहीं है । यद्यपि मुनिवर विद्यासागरजी की साधना निर्विवाद रूप से तीर्थंकरों के अनुरूप और वर्तमान में अद्वितीय है, वन्दनीय है। ऐसी स्थिति में जब मुनिवर विद्यासागरजी का अद्भुत प्रभामण्डल देदीप्यमान हो रहा हो, उनकी किसी कृति की समीक्षा कितने निष्पक्ष ढंग से की जा सकती है, यह विचारणीय है । स्पष्ट है कि इन पंक्तियों के लेखक की भी नियत ठीक नहीं है। हालाँकि मैं चाहता यही हूँ और प्रयास भी यही है कि काव्य की समीक्षा करूँ, कवि की नहीं, पर रह-रह कर विद्यासागरजी का सन्ताचरण-तपश्चरण से दिपदिपाता चेहरा सामने आ जाता है । खैर, प्रयास करूंगा कि पूरी तटस्थता से पक्षपात रहित कलम चले । केवल कविता पर चर्चा करूँ । न आलोचना के लिए आलोचना हो और न भक्त की तरह मात्र स्तुति, वन्दना हो। 'मूकमाटी' में मुक्त छन्द का प्रयोग हुआ है पर रचनाकार गीतात्मकता से कहीं मुक्त नहीं हो पाया। विषय से अधिक ध्यान शब्दों के तिलिस्म पर रहा है । जैसे कि 'प्रस्तवन' में कह भी दिया गया है : “कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का', यथा : 0 "निरी माटी का/दरश करता है/...सरा माटी का/परस करता है ...तन से मन से/हरष करता है।" (पृ.४४) 9 "शिष्टों का उत्पादन-पालन हो/दुष्टों का उत्पातन-गालन हो।” (पृ. २३५) यह सही है कि कविता शब्दों की लयबद्धता भी है पर प्राकृतिक प्रस्फुटन उसकी पहली शर्त है । समर्थ कवि के शब्द विचारों पर थिरकते सटीक शब्द सहज चले आते हैं, उन्हें श्रम से नहीं लाना पड़ता । शिल्प और काव्य में श्रम अवश्य होता है पर वह प्रतीत नहीं होता, शैली होती है पर वह रचनाकार की मौलिक हो तो मज़ा ही कुछ और होता है। 'मूकमाटी' की स्तुति-वन्दना आज बहुत सारे जैन भक्त जगह-जगह कर रहे हैं पर पूरी कृति पढ़ पाने का श्रम और साहस कदाचित् बहुत कम ने किया होगा! भक्त की तरह 'मूकमाटी' का मोटा ग्रन्थ बहुतों ने मन्दिरों के लिए खरीद भी लिया होगा पर माटी की तरह जड़ होकर दिखावे के लिए, मुखर होकर उसका अध्ययन कितनों ने किया होगा --यह शंकास्पद है । अपेक्षा भी नहीं की जा सकती लगभग पाँच सौ पृष्ठ पढ़ने की--व्यवसायी वर्ग से। पर यदि विराम दे-देकर इसे पढ़ा जाए तो 'मूकमाटी' से माटी तो मुखर हो ही उठती है। सन् और माह तो याद नहीं है अब, पर बहुत पहले ललितपुर यात्रा के दौरान मुझे मुनिवर आचार्यश्री के दर्शन करने का अवसर मिला था, तो इसी कृति के कुछ अंश आचार्यजी ने मुझे दिखाए थे, लिखित पाण्डुलिपि के रूप में, कुछ पढ़कर--तब भी मैंने इसके गीत-तत्त्व की प्रसंशा की थी : “इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की/च्युति कब होगी ? बता दो, माँ इसे !/...कुछ उपाय करो माँ !/खुद अपाय हरो माँ !
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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