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308 :: मूकमाटी-मीमांसा
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।" (पृ. २७७) कुम्भ के पकने पर साधु की आहार-दान प्रक्रिया के रेखांकन के अन्यान्य पहलू जैन-मत की नाना अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं । कुम्भ का परीक्षण करते हुए सेवक द्वारा कुम्भ को सात बार बजाने की क्रिया द्वारा रचनाकार अपनी धार्मिक उपपत्तियों को उद्घाटित करता है :
“सा रे ग "म यानी/सभी प्रकार के दुःख/प"ध यानी ! पद-स्वभाव
और/नि यानी नहीं,/दु:ख आत्मा का स्वभाव- धर्म नहीं हो सकता,
मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह ।"(पृ. ३०५) यही नहीं, इस खण्ड में विविध प्रसंगोद्भावनाओं द्वारा मुनिश्री ने लौकिक-पारलौकिक जिज्ञासाओं, मानवीय मूल्यों और भावनाओं, साधना-उपासना के अन्यान्य पहलुओं तथा दार्शनिक चिन्तन के अनेक फलकों को नाटकीय शैली में उद्घाटित किया है। विचित्र बात यह है कि रचनाकार इन सारी प्रसंगोद्भावनाओं के ऊहापोह में धंसते हुए भी समसामयिक सामाजिक सन्दर्भो से असम्पृक्त नहीं है । यही कारण है कि इसी खण्ड में वह आतंकवाद की समस्या से जूझने का भी प्रच्छन्न संकेत देता है । आधुनिक भारतीय समाज की विभीषिका का विश्लेषण यहाँ अभिधात्मक पद्धति में नहीं वरन् लाक्षणिक प्रयोगों द्वारा किया गया है । स्वर्णकलश द्वारा आतंकवादी दल का आहूत किया जाना और अन्त में पाषाण-फलक पर आसीन वीतरागी संन्यासी की अर्चना-वन्दना के उपरान्त आतंकवाद का यह स्व-कथन ही इस समस्या का समाधान है अर्थात् आतंकियों का हृदय-परिवर्तन :
"हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है, ...हम भी आश्वस्त हो/आप-जैसी साधना को/जीवन में अपना सकें, ...'तुम्हारी भावना पूरी हो'/ऐसे वचन दो हमें,/बड़ी कृपा होगी हम पर।"
(पृ. ४८४-४८५) समग्रत: रचनाकार ने लौकिक-पारलौकिक दृष्टियों और मूल्यों के अन्यान्य पहलुओं को इस ग्रन्थ में संग्रथित किया है । वे शुद्ध, सात्त्विक जीवन-पद्धति को ही मानव का चरम काम्य स्वीकारते हैं । भौतिक भोगों से समाधि की ओर उन्मुख होना और वीतराग संस्कृति को तरजीह देना ही, कदाचित् 'मूकमाटी' का लक्ष्य है। मुनि कवि इस स्वकेन्द्रित भौतिकवादी युग में 'श्रमण-संस्कृति' को सर्वथा प्रासंगिक एवं वरेण्य मानते हैं।
'मूकमाटी' को महाकाव्य कहना समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि महाकाव्य के लिए निर्धारित काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों का निर्वाह इस ग्रन्थ में नहीं होता । यद्यपि यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि रचना में काव्यगत औदात्त्य का चर्मोत्कर्ष विद्यमान है । मुनिकवि की दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि से पुष्ट 'मूकमाटी' में विचारों, भावोद्गारों और आवेग की प्रबलतम एवं उत्कृष्ट अभिव्यक्ति हुई है। कृति का रचनाविधान नितान्त गरिमामय एवं भव्य है । प्रतीक योजना एवं बिम्बविधान की दृष्टि से भी 'मूकमाटी' उल्लेखनीय काव्य है।