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मूकमाटी-मीमांसा :: 307
नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. १८९) न्याय और अन्याय के सनातन संघर्ष को रेखांकित करने हेतु रचनाकार ने प्रकृति के उपकरणों को प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया है। न्याय और धर्म का संरक्षक भानु कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं होता और अपनी प्रखर किरणों के उत्ताप से सदा अन्यायियों, अनाचारियों को दग्ध करता रहता है । ताराएँ, चन्द्रमा आदि सभी उसके धर्मध्वज से कतराकर दूर भागते रहते हैं अर्थात् अधर्म हमेशा ही धर्म के साम्मुख्य से बचता रहता है। परन्तु अधर्मियों की शक्ति भी कम नहीं, क्योंकिः
"दिन-रात जाग्रत रहती है यहाँ की सेना भयंकर विषधर अजगर/मगरमच्छ, स्वच्छन्द...
वातावरण को विषाक्त बनाया जाता है/तुरन्त विष फैला कर ।" (पृ. १९४) किन्तु, अहिंसा को परम धर्म मानने वाले साधक, धर्म से कभी विचलित नहीं होते । वे धरित्री की भाँति ही सदा-सर्वदा सब के कल्याणकारी होते हैं।
“पूरी तरह जल से परिचित होने पर भी/आत्म-कर्तव्य से चलित नहीं हुई धरती यह ।/कृतघ्न के प्रति विघ्न उपस्थित करना तो दूर,/विघ्न का विचार तक नहीं किया मन में।...
उद्धार की ही बात सोचती रहती/सदा - सर्वदा सबकी।” (पृ. १९४-१९५) मुनि कवि मन, वाणी और कर्म से लोक-कल्याण का उपदेश देते हैं, क्योंकि लोक-हित में श्रेष्ठ कार्यों का सम्पादन ही सच्चे साधक का शोध है और यही दया-धर्म है । काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ, मान एवं मोह आदि से मन को मुक्त कराने की क्रिया साधक की चेतना के संस्कार का कर्म ही सच्चा धर्म है :
"जल को मुक्ता के रूप में ढालने में/शुक्तिका-सीप कारण है और/...जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है।
यही दया-धर्म है/यही जिया-कर्म है।" (पृ. १९३) वस्तुतः प्रस्तुत खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' का शीर्षक नितान्त सार्थक तथा सांकेतिक है । लोककल्याण की कामना करना, विषयों को त्याग कर जितेन्द्रिय और विजितमना बनाना ही पुण्य का पालन है एवं पाप का प्रक्षालन है । और यही, यहाँ कुम्भकार और माटी की विकास-कथा के प्रसंग में रचनाकार ने पुण्य-कर्म- सम्पादन के श्रेयस् को प्रमाणित किया है।
चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' निर्मित कुम्भ का कुम्भकार द्वारा अवा में तपाने की प्रक्रिया का प्रतीकात्मक काव्यबद्ध रूप है । घट पकाने की प्रक्रिया तत्त्व-दर्शन और सामाजिक सन्दर्भो से जोड़ी गई है । अवा में बबूल की लकड़ियों का जलना, वस्तुत: साधना की आँच में दोषों का जलना है। साधना की आग में दोषों का जलना ही साधक का पुन: जीवित होना है :