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306 :: मूकमाटी-मीमांसा
आगम के चक्रगत (उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्) ध्रुवता का निरूपण द्रष्टव्य है :
"आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है, जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है
और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य !" (पृ. १८५) यही नहीं, प्रस्तुत खण्ड में काव्यगत चमत्कार-प्रदर्शन के नमूने भी भरपूर मिलते हैं । ९९ और ९ की संख्याओं पर गणितीय प्रयोगों को तत्त्वोन्मेष से सम्बद्ध करना चमत्कार-प्रदर्शन के साथ ही रूढ़िग्रस्त भी प्रतीत होता है :
"९९ और ९ की संख्या/जो कुम्भ के कर्ण-स्थान पर आभरण-सी लगती अंकित हैं/अपना-अपना परिचय दे रही हैं। एक क्षार संसार की द्योतक है/एक क्षीर-सार की। एक से मोह का विस्तार मिलता है,/एक से मोक्ष का द्वार खुलता है ९९ संख्या को/दो आदि संख्याओं से गुणित करने पर...
९ की संख्या ही शेष रह जाती है।” (पृ. १६६) द्वितीय खण्ड का शीर्षक सार्थक है । अभिप्राय है कि मात्र उच्चारण शब्द होता है । शब्द की अन्तरात्मा की पहचान ही उसका बोध है और उस बोध को जीवन में अन्तर्घटित करना शोध है, यथा :
"बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, ...बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें
वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है ।" (पृ. १०६-१०७) तृतीय खण्ड के प्रारम्भ में धरती और जलधि के रूपक द्वारा कवि ने पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था के गर्हित स्वरूप का रेखांकन किया है । जलधि उस पूँजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है जो निरन्तर धरती रूपी सर्व-सहा भारतीय जनता का सर्वस्व अपहरण कर रहा है तथा वैभव के, ऐश्वर्य के चकाचौंध से छल रहा है :
"जब कभी धरा पर प्रलय हुआ/यह श्रेय जाता है केवल जल को धरती को शीतलता का लोभ दे/इसे लूटा है,/इसीलिए आज यह धरती धरा रह गई/न ही वसुंधरा रही न वसुधा !/और यह जल रत्नाकर बना है-/बहा-बहा कर
धरती के वैभव को ले गया है।" (पृ. १८९) परन्तु पूँजीवादी व्यवस्था के सम्पोषकों का यह संग्रह-कर्म दार्शनिक कवि की दृष्टि में नीच कर्म तो है ही, साथ ही पारलौकिक दृष्टि से अज्ञान और मोह का परिचायक भी है :
“पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है, और पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है,