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कहीं-कहीं उपदेशात्मक शैली बोझिल भी हुई है, पर विषय की गूढ़ता के कारण रचनाकार की यह मजबूरी
हो सकती है, यथा :
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“इसीलिए सुनो ! / आयास से डरना नहीं / आलस्य करना नहीं !" (पृ. ११) " इसलिए / प्रतिकार की पारणा / छोड़नी होगी, बेटा ! अतिचार की धारणा / तोड़नी होगी, बेटा !" (पृ. १२)
" एक बात और कहनी है / कि / किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता प्रतीक्षा करना / सही पुरुषार्थ नहीं है।” (पृ. १२-१३ ) व्यक्तियों के प्रभाव का अपना रंग है, यथा :
"बायें हिरण / दायें जाय - / लंका जीत / राम घर आय ।" (पृ. २५)
अनेक शब्दों के अर्थ, नए सन्दर्भों में खोलने में रचनाकार ने महारत हासिल की है । अक्षरों के विन्यास से यह अर्थ रोचक और प्रेरक भी बन पड़े हैं, यथा :
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मूकमाटी-मीमांसा :: 311
" अपनी पराग को ।” (पृ. २)
'पराक्रम से रीता /विपरीता है इसकी भाग्य रेखा । " (पृ. ४)
" ऋजुता की यह / परम दशा है / और / मृदुता की यह / चरम यशा है।” (पृ. ४४-४५)
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'... शिल्पी से / कड़वी घूँट - सी पीकर ।" (पृ. ५१)
"कुम्भकार ! / 'कुं' यानी धरती / और / 'भ' यानी भाग्य -
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यहाँ परं जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ.२८) 'गद' का अर्थ है रोग/'हा' का अर्थ है हारक/ मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ ···बस,/और कुछ वांछा नहीं / गद- हा गदहा..!" (पृ. ४० )
आज की वर्ण-भेद समस्या पर सन्त रचनाकार 'अत्यन्त समीचीन संस्तुति दी है । यह काल की दृष्टि से प्रासंगिक भी है :
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अनेक प्रसंगों में शब्दों का चमत्कार दर्शनीय है, यथा :
'क्षीर में नीर मिलाते ही / नीर क्षीर बन जाता है । ... गाय का क्षीर भी धवल है / आक का क्षीर भी धवल है ... नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है । / और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण संकर है ।" (पृ. ४८-४९)
" राही बनना हो तो / हीरा बनना है, / स्वयं राही शब्द ही विलोम - रूप से कह रहा है - / राही " हीरा।” (पृ.५७)
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"राख बने बिना / खरा-दर्शन कहाँ ? / राख"ख""रा ं ं।” (पृ.५७)
जैनत्व के निर्ग्रन्थ की अत्यन्त जानदार व्याख्या आचार्यश्री द्वारा की गई है। रस्सी का उदाहरण देते हुए वे इसे