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304 :: मूकमाटी-मीमांसा
"गद का अर्थ है रोग/हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ "बस,/और कुछ वांछा नहीं/...आज सार्थक बना नाम
गद-हा"गदहा "धन्य !" (पृ. ४०-४१) यही नहीं, तुच्छ और पद-दलित माटी और अकिंचन गदहा दोनों ही परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की सूक्ति को चरितार्थ करते हैं, यथा :
" 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'/यह सूत्र-सूक्ति/चरितार्थ होती है इन दोनों में !
सब कुछ जीवन्त है यहाँ/जीवन ! चिरंजीवन !! संजीवन !!!" (पृ. ४१) इस अधोमुखी, बेसहारा जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाने के लिए कवि आत्मसंयम और अहिंसा की उपासना करने की सलाह देता है । हिंसा मनुष्य को हमेशा छलती है । मानव-मन में ग्रन्थियों का होना ही हिंसा को जन्म देता है । वस्तुत: ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है और निर्ग्रन्थ-दशा, मन की सहज दशा ही अहिंसा की पोषक है । रचनाकार की दृष्टि में निर्ग्रन्थ-पथ पर चलना और अहिंसा की उपासना करना ही मानव-जीवन का प्रमुख काम्य होना चाहिए। जैनदर्शन के इसी मूल-मन्त्र को रेखांकित करते हुए मुनिश्री लिखते हैं :
"हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और/जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है ।/अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और/निर्ग्रन्थ-दशा में ही/अहिंसा पलती है... हम निर्ग्रन्थ-पन्थ के पथिक हैं/इसी पन्थ की हमारे यहाँ
चर्चा - अर्चा - प्रशंसा/सदा चलती रहती है।" (पृ. ६४) परन्तु रचनाकार मुनि की वेदना यह है कि आज अहिंसा और अपरिग्रह के स्थान पर स्वार्थ और हिंसा ही फलवती हो रही है। आज 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का महाभाव भी भावहीन हो रहा है। उसका आशय ही बदल डाला गया है
" 'वसुधैव कुटुम्बकम्'/इसका आधुनिकीकरण हुआ है 'वसु' यानी धन-द्रव्य/'धा' यानी धारण करना/आज
धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) किन्तु भविष्य नितान्त अन्धकारमय नहीं है । आज महती आवश्यकता सत् और असत् की पहचान की है:
"समझने का प्रयास करो, बेटा!/सत्-युग हो या कलियुग बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह/सत् की खोज में लगी दृष्टि ही सत्-युग है बेटा !/और/असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !"(पृ. ८३) वस्तुत: असत् अदय और क्रूर होता और सत् सदय और मृदु । असत् व्यष्टिवादी होता है और सत् समष्टिवादी और दयावान् भी । इसी तथ्य की ओर ग्रन्थ के प्रथम खण्ड की अन्तिम पंक्तियों में संकेत मिलता है :