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मूकमाटी-मीमांसा :: 303
उससे कंकर-पत्थर अलग करने की क्रिया, ठीक उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार मानवात्मा के उत्कर्ष के लिए उसे कटु भौतिक (दैहिक) अनुभूतियों से मुक्त कराना । दुःखानुभूतियों का अतिक्रमण ही मानवात्मा का सहज रूप है । आत्मोत्कर्ष की इसी प्रक्रिया का प्रस्तुतीकरण माटी से मंगल घट निर्माण करने की क्रिया में अन्तर्निहित है । प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रथम खण्ड संकर नहीं : वर्ण-लाभ' इस दृष्टि से पूर्ण सार्थक है। अभिप्राय यह है कि माटी जो अभी विपरीत तत्त्वों (कंकर-पत्थर आदि) के कारण वर्ण-संकर है, मंगल घट का रूपाकार ग्रहण नहीं कर सकती । वह ‘मंगल घट' के रूप में तभी अवतरित होगी जब वह वर्ण-लाभ करेगी, अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होगी अर्थात् मानवात्मा मोक्ष-लाभ तभी करेगी जब वह राग-द्वेष, दुःख-सुख की अनुभूतियों का अतिक्रमण कर अपने परिमार्जित एवं सहज रूप में प्रतिस्थापित होगी। यहाँ मंगल घट' निर्माण की शिल्पी द्वारा की गई क्रिया, वस्तुत: गुरु द्वारा साधक की अन्तश्चेतना के परिमार्जन, परिशोधन की प्रक्रिया की ओर इंगित है। साधना, तपश्चरण साधक की जीवन-यात्रा, उसकी अन्तश्चेतना के विकास की, उसकी आध्यात्मिक यात्रा की पहली सीढ़ी है। माटी और शिल्पी के रूपक द्वारा कवि का यही सन्देश है :
"कल के प्रभात से/अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें ! प्रभात में कुम्भकार आयेगा/पतित से पावन बनने,/समर्पण भाव-समेत उसके सुखद चरणों में/प्रणिपात करना है तुम्हें,/अपनी यात्रा का सूत्र-पात करना है तुम्हें !/...अपने-अपने कारणों से/ससप्त-शक्तियाँलहरों-सी व्यक्तियाँ,/दिन-रात, बस/ज्ञात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें !"(पृ. १६-१७) प्रथम खण्ड मुनिवर के विचार-मन्थन से उद्भूत दार्शनिक-वैचारिक उपपत्तियों से ओत-प्रोत है । वे संघर्ष को ही जीवन का सुखद उपसंहार मानते हैं :
“संघर्षमय जीवन का/उपसंहार
नियमरूप से/हर्षमय होता है, धन्य !"(पृ. १४) गरीबी-अमीरी, दुःख-सुख मानव-जीवन के तथ्य हैं । जीवन का यथार्थ-सात्त्विक जीवन का यथार्थ यही है। पर-दुःखकातरता, वेदनानुभूति, सहजानुभूति का सम्पोषण तथा संवेदनधर्मा बनना ही मानव-जीवन की सार्थकता है। यही कारण है कि कवि वासना को मोह और दया को मोक्ष मानता है।
0 "वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है
एक जीवन को बुरी तरह/जलाती है""/भयंकर है, अंगार है !
एक जीवन को पूरी तरह/जिलाती है"/शुभंकर है, शृंगार है।” (पृ. ३८) . “वासना की जीवन-परिधि/अचेतन है"तन है/दया-करुणा निरवधि है।
करुणा का केन्द्र वह/संवेदन-धर्मा'चेतन है/पीयूष का केतन है।" (पृ. ३९) कवि भौतिक जगत् में अपदार्थ और अकिंचन समझे जाने वाली वस्तुओं और जीवों को प्रतीकात्मक ढंग से अतिशय कल्याणकारी और मानवीय मूल्यों का सम्पोषक प्रमाणित करता है । गदहा' शब्द की सार्थकता की ओर संकेत करते हुए रचनाकार लिखता है :