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________________ 'मूकमाटी' : काव्य - अध्यात्म का संश्लेष डॉ. सत्यदेव मिश्र जैनमुनि आचार्य विद्यासागर प्रणीत काव्य-ग्रन्थ 'मूकमाटी' आध्यात्मिक काव्य है, काव्य और अध्यात्म का संश्लिष्ट रूप है । इस ग्रन्थ में आत्म-‍ -शुद्धिरत साधना के सोपानों तथा लोक-मंगलकामी सन्त की तपश्चर्या का रेखांकन कुम्भकार द्वारा निर्माण की प्रक्रिया के रूपक तथा विशिष्ट प्रतीकों के माध्यम से हुआ है। इस भौतिक जगत् की नितान्त अकिंचन एवं तुच्छ वस्तु मिट्टी को महाकाव्य की वस्तु के रूप में स्वीकृति आचार्यश्री का कोई रोमांटिक व्यामोह नहीं है, वरन् इस बात का प्रमाण है कि अकिंचन और अपदार्थ समझे जाने वाले भी महान् हो सकते हैं, आवश्यकता साधना की है, तपश्चरण की है । समीक्षित ग्रन्थ चार खण्डों में विभक्त है और महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित भी। महाकाव्य की कसौटी पर कसने से पूर्व प्रत्येक खण्ड का वस्तु - तात्त्विक विश्लेषण अपेक्षित है । प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' का प्रारम्भ प्रकृति के मनोरम रूपांकन से होता है : " सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, और ...इधर नीचे / निरी नीरवता छाई, निशा का अवसान हो रहा है/ उषा की अब शान हो रही है।" (पृ. १) उषाकालीन वेला में जहाँ रात्रि रूपी माँ की गोद में सोता हुआ सूर्य, प्राची रूपिणी राग-रंजित स्त्री की मन्दमन्द मुस्कान से अनुरंजित हो अँगड़ाई लेने लगता है, वहीं चाँदनी और ताराएँ - अबला बालाएँ अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे छुपने का उपक्रम करती हैं। ऐसी ही मनोहारी सन्धि वेला में जहाँ न निशाकर है न निशा, न दिवाकर है न दिवा, पतिता, तिरस्कृता, पद- दलिता, यातनाओं और पीड़ाओं का पुंजीभूत स्वरूप अकिंचन माटी माँ पृथ्वी के सम्मुख एक अभागिन बेटी की भाँति अपनी व्यथा-कथा कहती है, और उस व्यथा-कथा के माध्यम से ही रचनाकार का दार्शनिक चिन्तन मुखर हो उठता है : "और, संकोच - शीला / लाजवती लावण्यवती - / सरिता - तट की माटी अपना हृदय खोलती है/माँ धरती के सम्मुख ! / स्वयं पतिता हूँ और पातिता हूँ औरों से, / अधम पापियों से / पद- दलिता हूँ माँ ! ... यातनायें पीड़ायें ये !/ कितनी तरह की वेदनायें /... इनका छोर है या नहीं ! ... और सुनो, / विलम्ब मत करो / पद दो, पथ दो / पाथेय भी दो माँ!" (पृ. ४-५ ) इस प्रकार जैन दर्शन और अध्यात्म के मूलभूत सिद्धान्तों का आख्यान - क्रम प्रथम खण्ड से ही प्रारम्भ हो है। वस्तुत: यहाँ सन्त कवि की प्रसंगोद्भावना नितान्त मौलिक है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिस वेदना-व्यथा, यातना और पीड़ा का रेखांकन माटी के सन्दर्भ में हुआ है, उसे साधक के मनोविकारों और सन्त्रास के प्रक्षालन का ही उपक्रम मानना चाहिए। साधना-पथ में करुणा का उद्रेक बिना पीड़ानुभूति, वेदनानुभूति के सम्भव नहीं । और कारुणिक अनुभूति ही आत्म-शोधन और आत्म-विस्तार की पहली सीढ़ी है। कुम्भकार की परिकल्पना में माटी का जो मंगल घट उद्भासित हुआ है, उसके लिए माटी का परिशोधन,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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