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मूकमाटी-मीमांसा :: 301
क्रान्तद्रष्टा मुनि है, साधक है, उपदेष्टा है, जनदुःख-कातर है, उनका 'स्वान्त: सुख' 'सर्वहित' में निहित है । अत: अध्यात्म के संसार से बाहर निकलकर उनकी दृष्टि बीच-बीच में दुःखद युगीन स्थितियों तक भी पहुँची है । कहीं वे गणतन्त्र के दोषों का अवलोकन करते हैं, तो कहीं 'समता सिद्धान्त' की व्याख्या करते नज़र आते हैं; कभी वे दहेज बलि पर द्रवित होते हैं तो कभी भौतिक प्रगति की एकांगिता पर चिन्ता व्यक्त करते हैं। दहेज लोभी समाज के व्यवहार पर मुनिवर की प्रतिक्रिया द्रष्टव्य है :
"...सन्तों ने/पाणिग्रहण संस्कार को/धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है।/परन्तु खेद है कि/लोभी पापी मानव
पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।” (पृ. ३८६) इतना ही नहीं, आतंकवाद जैसी युगीन असंगतियाँ भी कवि की दृष्टि से छूट नहीं पाईं । स्वर्णकलश मिट्टी के घड़े से अवज्ञा पाकर आतंकवाद का आह्वान करता है । आतंकवाद के जन्म की स्थितियों का विश्लेषण करते हुए 'मूकमाटी'कार लिखते हैं :
“मान को टीस पहुँचने से ही,/आतंकवाद का अवतार होता है । अति-पोषण या अतिशोषण का भी/यही परिणाम होता है, तब/जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं,
बदले का भाव "प्रतिशोध !" (पृ. ४१८) 'मूकमाटी' की एक-एक पंक्ति प्रेरक, उद्बोधक और उद्धरणीय है, परन्तु कतिपय पृष्ठों की समीक्षा में महाकाव्य के विस्तार को समेटना कहाँ सम्भव है ?
विवेच्य महाकाव्य में कथ्य के स्तर पर जैसी भव्यता और उदात्तता है, वैसी ही शिल्प के स्तर पर भी दिखाई देती है । विशेष कर कुछ शब्दों की प्रवचनपरक व्युत्पत्ति और व्युत्क्रमजन्य अर्थ तो चमत्कृत करने वाले हैं, जैसे :
० "स्वप्न प्रायः निष्फल ही होते हैं/इन पर अधिक विश्वास हानिकारक है।
'स्व' यानी अपना/'' यानी पालन-संरक्षण/और 'न' यानी नहीं,/जो निज-भाव का रक्षण नहीं कर सकता वह औरों को क्या सहयोग देगा ?" (पृ. २९५) "रग-रग में/विश्व का तामस आ भर जाय/कोई चिन्ता नहीं, किन्तु, विलोम-भाव से/यानी/ता "
मस स''म''ता''.!" (पृ. २८४) 'योग में निश्चल मेरु-सम, उपयोग में निश्छल धेनु-सम' जैसे उपमान कवि की उत्कृष्ट अलंकार योजना के निदर्शन हैं। काव्य मुक्त छन्द में है, परन्तु उसमें लयात्मकता है।
एक ही वाक्य में कहें तो 'मूकमाटी' आत्मा का संगीत है, जो पाठक की चेतना पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।