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________________ 300 :: मूकमाटी-मीमांसा अपरिग्रह मोक्ष-प्राप्ति का अन्यतम सिद्धान्त है । जिस श्रमण संस्कृति की आचार्यों ने प्रतिष्ठा की थी, वह त्याग की उस पराकाष्ठा पर टिकी थी, जहाँ वस्त्र और पात्र तक त्याज्य हो जाते हैं। भोजन के लिए पात्र का उपयोग न करने वाला साधक ही पात्र' कहलाता है। कवि का उपदेश है : "पात्र के बिना कभी/पानी का जीवन टिक नहीं सकता, और/पात्र के बिना कभी/प्राणी का जीवन टिक नहीं सकता, परन्तु/पात्र से पानी पीने वाला/उत्तम पात्र हो नहीं सकता।” (पृ. ३३५) साधु की 'गोचरी वृत्ति' की भी विवेच्य महाकाव्य में सुन्दर व्याख्या हुई है । भूख लगना एक शारीरिक आवश्यकता है, अत: उदर-भरण प्राकृतिक क्रिया है। उसमें कोई दोष या पाप नहीं है। किन्तु जिह्वा की तुष्टि के लिए षड्रस व्यंजनों की ओर दौड़ना आसक्ति है । दाता जो दे, उसे निर्विकार भाव से ग्रहण करना साधु स्वभाव है । इसे समताधर्मी वृत्ति भी कहा गया है। इतना ही नहीं, दाता के सौन्दर्य को देखना भी आकर्षण' है। साधु उससे मुक्त रहता है। जिस तरह भूखी गाय की दृष्टि चारे पर रहती है, चारा डालने वाले के वस्त्रालंकारों पर नहीं। यही 'गोचरी वृत्ति' है। 'मूकमाटी' का कवि शास्त्रीय एवं लौकिक ज्ञान के विभिन्न पक्षों से सम्पन्न है, बहुज्ञ है। संगीत की सरगम से लेकर गणित के गूढ़ किन्तु मनोरंजक सिद्धान्तों तक का 'मूकमाटी' में उल्लेख हुआ है । काव्यशास्त्र के परम्परागत सिद्धान्तों से असहमति रखते हुए कवि ने शान्त रस को जो सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है, वह उनके मौलिक चिन्तन का प्रमाण है । शान्त एक अलौकिक रस है । करुण जीवन का प्राण है, परन्तु वह लौकिक है। वात्सल्य भी लौकिक है। किन्तु शान्त लोकोत्तर 'रस' है । सब रसों की परिणति शान्त में होती है। कवि का कथन है : “जहाँ तक शान्त रस की बात है/वह आत्मसात करने की ही है कम शब्दों में/निषेध-मुख से कहँ सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है।” (पृ. १६०) हास्य को तो मुनिप्रवर ने गर्हित कषाय माना है । सम्पूर्ण काव्य गम्भीर चिन्तन से ओतप्रोत है, बस एक स्थान पर हल्का-सा मृदु हास्य है, वह भी कवि की सात्त्विक पीड़ा से जन्मा है, अत: व्यंग्य है। समाजवाद की वर्तमान स्थिति पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं : “आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ?/सबसे आगे मैं समाज बाद में !" (पृ. ४६१) वस्तुत: यही आज के समाजवाद का असली चेहरा है। परम्परागत मान्यताओं के विपरीत-जो नारी को विषवृक्ष या नरक का द्वार मानती हैं-आचार्य विद्यासागर महाराज नारी के विषय में अत्यन्त उदार हैं । वे उसे सद्गुणों का समवाय मानते हैं। नारी पापभीरु और धर्मनिष्ठ होती है। शत्रुता तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करती, इसीलिए उसे 'नारी-न अरि' कहा गया हैवह उत्सव-आनन्द लाती है, अत: 'महिला' है; वह 'बला' नहीं, अत: 'अबला' है; पृथ्वी पर समृद्धि लाती है, अत: 'कुमारी' है; अच्छाइयों का समूह है, अत: सुता है; दो कुलों का हित करती है, अत: दुहिता है । नारी जननी है, माँ है। विरक्त सन्तों के लिए काव्य का प्रयोजन केवल 'स्वान्तः सुखाय' माना गया है । परन्तु 'मूकमाटी' का कवि
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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