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मूकमाटी-मीमांसा :: 299 “अनर्थ अनर्थ अनर्थ !/पाप "पाप"पाप !/क्या कर रहे आप...? परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें
करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही।" (पृ. २११-२१२) लगता है, कवि कहना चाहता है कि बिना श्रम के जो हम पाते हैं, वह पौरुषहीन कर्म है, चोरी है, पाप है।
चतुर्थ सर्ग ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' तो जैसे मानव के समस्त चिन्तन का सार है। कुम्भ का अवे में तपाया जाना ही उसकी अग्नि-परीक्षा है, तपश्चर्या है । दोषों और अवगुणों को भस्मसात् करने की प्रक्रिया है । मनुष्य भी जब तक कुम्भ की तरह कष्टों से नहीं गुज़रता, उसके व्यक्तित्व में निखार नहीं आता। विषयासक्ति का दमन, मोह का त्याग, काम आदि कमज़ोरियों पर विजय ही उसकी अग्नि-परीक्षा है । कविप्रवर कहते हैं :
"अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक/किसी को भी मुक्ति मिली नहीं,
न ही भविष्य में मिलेगी।" (पृ. २७५) 'मूकमाटी' का मूल स्वर प्रवचनपरक है। कवि की लेखनी मानव-व्यवहार के शुभ्र पक्ष का सन्देश देने के लिए संकल्पित है। अत: इस महाकाव्य में शुचिता के हर पक्ष से पाठक का साक्षात्कार होता है । ग्रन्थकार का उद्देश्य मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करना है । अनेक स्थानों पर विभिन्न शब्दों में वह मोक्ष के साधनों का उल्लेख करता है। एक स्थान पर कहा गया है:
“वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष हैएक जीवन को बुरी तरह/जलाती है... भयंकर है, अंगार है !
एक जीवन को पूरी तरह/जिलाती है."/शुभंकर है, शृंगार है।" (पृ. ३८) मोह के परित्याग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठोर व्रत की आवश्यकता होती है। वह अनायास सिद्ध नहीं होता । पर्वत की तलहटी में खड़े होकर हम उच्च शिखर की भव्यता देख तो सकते हैं, परन्तु उस भव्यता का स्पर्श करने के लिए चरणों का प्रयोग करना ज़रूरी है।
क्षमा मोक्ष का प्रवेश द्वार है । वह देवत्व का मार्ग है । जब मानव का अन्त:करण राग-द्वेष आदि कालुष्यों से मुक्त हो जाता है, तब क्षमावृत्ति का अंकुरण होता है । क्षमा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा प्रतिशोध की भावना है। इसीलिए 'मूकमाटी' का सन्देश है :
"बदले का भाव वह अनल है/जो
जलाता है तन को भी, चेतन को भी।" (पृ. ९८) कोमलता और कठोरता के सम्बन्ध में भी कवि के विचार प्रेरक एवं मार्गदर्शक हैं। सामान्यतया हम किसी के बाह्य कलेवर को देखकर उसकी कोमलता और कठोरता का निर्णय कर लेते हैं, किन्तु कई बार बाद में महसूस करते हैं कि हमारा निर्णय कितना पूर्वग्रह दूषित और एकांगी था । चतुर्थ सर्ग में गुरु चरणों की अर्चना के सन्दर्भ में श्रीफल कहता
"हमारे भीतर जरा झाँको,/मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं,/हृदय को छूकर होती है ।" (पृ. ३११)