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298 :: मूकमाटी-मीमांसा वायु तक कृत्रिम स्रोतों से ग्रहण करते हैं । किन्तु मिट्टी हमें प्रकृति से जोड़ती है, ऋजुता से जोड़ती है, जीवन की सरलता से जोड़ती है। आचार्यजी ने चतुर्थ सर्ग में श्रेष्ठी की मूर्छा के प्रसंग में मिट्टी के औषधीय गुणों का स्पष्ट उल्लेख किया है :
"छूने को मन मचले/ऐसी छनी हुई/कुंकुम-मृदु-काली माटी में नपा-तुला शीतल जल मिला,/उसे रौंध-रौंध कर/एकमेक लोंदा बना, एक टोप बना कर/मूर्छा के प्रतिकार हेतु/सर्व प्रथम,
सेठ जी के सर पर चढ़ाया गया।" (पृ. ४००) ''और आश्चर्य...उस मिट्टी के टोप ने सिर की उष्णता को इस प्रकार सोख लिया, जैसे गर्म लोहे की तपती उष्णता को पानी सोख लेता है।
'मूकमाटी' चार सर्गों में विभाजित है । सर्गों के नाम एक-एक दार्शनिक सत्य को अभिव्यक्ति देते हैं। 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' वर्णसंकरता की पहेली का सही समाधान प्रस्तुत करता है । कुम्भकार मिट्टी को संस्कार देता है । कूट-छान कर उसकी वर्णसंकरता दूर करता है। कंकर बिलगा दिए जाते हैं और शुद्ध मिट्टी घड़े के सृजन के लिए रख ली जाती है। वहाँ कवि संकरता और वर्ण-लाभ के अन्तर को स्पष्ट करता है-परस्पर विरोधी गणधर्म वाले पदार्थों का मिलन संकरता है तो समानधर्मी पदार्थों का मिलन वर्ण-लाभ । आक के दूध और गाय के दूध का मिलन संकरता है, अप्राकृतिक है, अनिष्टकारी है तो नीर-क्षीर-मिलन वर्ण-लाभ है, प्राकृतिक प्रक्रिया है।
दसरे सर्ग का शीर्षक है - 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं' । यह ज्ञान और व्यवहार की उत्तम परिभाषा है । शब्द को शब्द के स्तर तक जानना 'बोध' नहीं है । शब्द प्रथम सोपान पर अभिधात्मक होता है, उसका अभिप्रेत अर्थ जिस बिन्दु पर प्रकट होता है, वह बोध की सीमा रेखा है। परन्तु शब्द की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती । उसकी मंज़िल तो 'शोध' है, जो शब्द-वृक्ष का परिपक्व फल है :
"बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है, कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं,/...बोध का फूल जब
ढलता बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है।"(पृ.१०६-१०७) तीसरा सर्ग 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' है । पाप और पुण्य की आचार्यप्रवर की धारणा मुख्यतया परद्रव्येषु लोष्ठ्वत्' की सूक्ति पर आधारित है । पाप का प्रारम्भ ही पर-सम्पदा पर दृष्टि डालने से होता है। यह मानसिक चोरी है और चौर्य कर्म कायिक चोरी है। किसी भी दुष्कर्म में हमारी प्रवृत्ति पहले मन के स्तर पर होती है, जो उत्तरोत्तर कायिक व्यवहार में परिणत हो जाती है । कवि का कथन है :
"पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है, और/पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना
मोह-मूर्छा का अतिरेक है।" (पृ. १८९) कुम्भकार की अनुपस्थिति में उसके प्रांगण में मोतियों की वर्षा होती है। ये मोती परिश्रम से उपजे हैं, परन्तु राजा के सेवक उन्हें समेटने उसके घर पहुँच जाते हैं। किन्तु ज्यों ही वे झुककर उन्हें उठाने में प्रवृत्त होते हैं, आकाशवाणी होती है :