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'मूकमाटी': आत्मा के संगीत की कविता
डॉ. तेजपाल चौधरी 'मूकमाटी' एक अप्रतिम महाकाव्य है-मानव की मुक्तियात्रा का मार्गदर्शक, वीतराग जीवन की आध्यात्मिक साधना का परिपाक, ऊर्ध्वमुखी चिन्तन का चरम बिन्दु और लोक मंगल की कामना से आद्यन्त ओतप्रोत, जिसे पढ़ कर एक अलौकिक आनन्द मिलता है। 'मूकमाटी' की सर्वोत्तम उपलब्धि अध्यात्म जैसे दुरूह एवं सीमित संवेद्य विषय को काव्यात्मकता की चाशनी में पाग कर सर्वसंवेद्य बना देना है। स्वयंतपा जीवनद्रष्टा मुनि साधना और तपश्चर्या के द्वारा जीवन-सत्य का जो साक्षात्कार करते हैं, उसकी चरितार्थता उसके सम्प्रेषण में निहित होती है । 'मूकमाटी' इसी सदुद्देश्य की पूर्ति का सफल प्रयास है। ग्रन्थ का कथ्य एक और तथ्य की ओर संकेत करता है कि कोई भी धर्म आध्यात्मिक विकास की ऊपरी सीढ़ी पर पहुँचकर सर्वग्राह्य मानव धर्म में परिवर्तित हो जाता है । वहाँ पहुँच कर साम्प्रदायिक संकीर्णताएँ विगलित हो जाती हैं और शेष रह जाती है व्यापक सत्त्वप्रधान दृष्टि, जो सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का विधान करती है । 'मूकमाटी' ऐसे ही व्यापक मानव धर्म की प्रतिष्ठा का महाकाव्य है।
'मूकमाटी' का महाकाव्यत्व असन्दिग्ध है । महाकाव्य की शास्त्रीय कसौटी हाथ में लिए खड़ा समीक्षक शायद कहेगा कि इसका कथानक व्यापक नहीं है, या कि इसमें धीरोदात्त नायकत्व की प्रतिष्ठा नहीं हुई है, या कि इसमें रस का सम्यक् परिपाक नहीं हुआ है, या कि इसमें आठ नहीं चार ही सर्ग हैं, या कि इसका वस्तु वर्णन महाकाव्य के मानदण्डों की कोटि का नहीं है, आदि...आदि। ये सब प्रश्न अपनी जगह ठीक हैं, परन्तु 'मूकमाटी' फिर भी महाकाव्य है। इसमें कथ्य और शैली की जो उदात्तता है, वह इसे महाकाव्य बनाती है। ये प्रश्न सर्वथा नए नहीं हैं। प्राय: हर युग में ये प्रश्न उठाए गए हैं और हर बार आचार्यों को नए महाकाव्य के अनुसार अपनी कसौटियाँ बदलनी पड़ी हैं।
कथानक की व्यापकता की बात करें, तो हम पाएँगे कि पूरे महाकाव्य की कहानी को आठ-दस पंक्तियों में कहा जा सकता है । एक कुम्हार घड़ा बनाने के लिए मिट्टी खोदकर लाता है, उसे कूटता-छानता है, उसके कंकरपत्थर दूर करता है, उसमें पानी डालकर गूंथता है, चक्र पर चढ़ाकर घड़ा बनाता है, उसे सुडौल बनाने के लिए थपकी से पीटता है, कच्चे घड़े को सुखाता है, उसे अवे में पकाता है और जब घड़ा बन जाता है, तो उसे एक श्रद्धालु सेठ को सौंप देता है, जिससे वह गुरु-पाद-प्रक्षालन के पुण्य कार्य के लिए उसका उपयोग कर सके। - इस घुतम कथा को एक प्रदीर्घ काव्य का विषय बनाना और कथा संयोजन में बिखराव न आने देना, एक लोकोत्तर कवि के ही बूते की बात है। प्रतीकात्मक स्तर पर कथानक का अवगाहन करें तो यह कथा परत-दर-परत जीवन के रहस्य खोलती हुई प्रतीत होती है। कथा से एक सत्य तो यही उभरकर सामने आता है कि जीवन की धन्यता गन्तव्य तक पहुँचने और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में निहित है । परन्तु वह मंज़िल सहज प्राप्य नहीं होती। उसके लिए साधक को कठोर तपश्चर्या करनी पड़ती है । उसे पानी में गलना पड़ता है, आतप में सूखना पड़ता है, आग में तपना पड़ता है। परन्तु जब वह तपकर बाहर निकलता है तो उसका मूल्य सम्पन्नता के लिए भी ईर्ष्या की वस्तु बन जाता है। मिट्टी के घड़े के प्रति स्वर्ण कलश का ईर्ष्याभाव गम्भीर अर्थवत्ता लिए हुए है।
__ मिट्टी को प्रकृति का प्रतीक माना जाए तो एक अन्य अर्थ प्रस्फुटित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । आज हमारा मिट्टी से सम्पर्क टूट गया है। मिट्टी की गरिमा को भुलाकर हम वैज्ञानिक संसाधनों के दास हो गए हैं। आज हम जिस आत्मघाती उपभोक्ता संस्कृति में जी रहे हैं, वह हमें पराश्रितता की पीड़ा के सिवाय कुछ नहीं देती। एक क्षण के लिए विद्युत् प्रवाह खण्डित हो जाए तो हम स्वयं को बेबस अनुभव करने लगते हैं। हम अन्न, जल और वस्त्र ही नहीं,