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296 :: मूकमाटी-मीमांसा
"धरती शब्द का भी भाव/विलोम रूप से यही निकलता हैध"र"ती तीर"/यानी,/जो तीर को धारण करती है
या शरणागत को/तीर पर धरती है/वही धरती कहलाती है।" (पृ. ४५२) समाजवाद की व्याख्या की गई, पर व्यंग्यात्मक है । कैसी सच्ची एवं प्रेरक पंक्तियाँ हैं कवि की :
"आचरण के सामने आते ही/प्राय: चरण थम जाते हैं
और/आवरण के सामने आते ही/प्राय: नयन नम जाते हैं।" (पृ. ४६२) यात्रा के समापन की ओर अग्रसर होते हुए परिवार सहित सेठ का सरिता सन्तरण एवं आतंकवादी विचारधारा के मूर्तमान् स्वरूप से सुरक्षा प्राप्त कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना का दिग्दर्शन हुआ है, यथा :
"कुम्भ के मुख से निकल रही हैं/मंगल-कामना की पंक्तियाँ : "यहाँ"सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. ४७८) कवि की अन्तः एवं बाह्य वृत्ति की झाँकी आभा के मानवीकरण में झलक उठी है । नायिका के ऐसे भाव एवं सुन्दर चित्र की झलक और कहाँ सुलभ होगी ? :
"बाल-भानु की भास्वर आभा/निरन्तर उठती चंचल लहरों में उलझती हुई-सी लगती है/कि/गुलाबी साड़ी पहने/मदवती अबला-सी
स्नान करती-करती/लज्जावश सकुचा रही है ।" (पृ. ४७९) भाव, भाषा, छन्द, अलंकार, रीति और शैली-सभी रूपों में जब हम आचार्य विद्यासागर प्रणीत 'मूकमाटी' काव्यकृति पर विचार करते हैं तो वह परीक्षा के निकष पर खरी उतरती है । इसमें पदे-पदे कवि की बहुज्ञता तो प्रदर्शित होती ही है, साथ-ही-साथ दर्शन के प्रमुख तत्त्व भी प्रकारान्तर से स्वर्ण मुद्रिका में मणि की भाँति अलंकृत प्रतीत होते हैं। यह कृति उस नारिकेल फल के सदृश है जिसका बाह्य आवरण अत्यन्त कठोर, किन्तु अन्तःकरण सरस और मधुर होता है । निःसन्देह प्रतिभासम्पन्न युगसन्त आचार्य विद्यासागरजी द्वारा प्रणीत यह अतुकान्त काव्यकृति विचारोदधि से प्रादुर्भूत वह नवनीत है, जिससे मूकमाटी की चिरन्तन पीड़ा को पूर्ण विराम मिलता है । देवासुर-संग्राम के समय समुद्र विमन्थन से निकली हुई सुधा, वसुधा को अमरत्व प्रदान करे और समूची सृष्टि से वैषम्य का विष विगलित हो-इसी कामना के साथ में इस कृति और कृतिकार का अभिवन्दन करता हूँ :
"इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ ! हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंजिल पर! और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त"/और माहौल को अनिमेष निहारती-सी/"मूकमाटी।" (पृ. ४८८)