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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 295 हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ होती हैं।/कहाँ तक कहें/और "इधर युवा-युवतियों के हाथों में भी/इस्पात के ही कड़े मिलते हैं। क्या यही विज्ञान है ?/क्या यही विकास है ? बस/सोना सो गया अब/लोहा से लोहा लोहा !" (पृ. ४१२-४१३) आधुनिक युगबोध और परिस्थितियों का आकलन करते हुए कवि ने कनक-कलशी के माध्यम से (स्वर्ण में सारी बुराइयाँ निहित हैं) ईर्ष्या और जलन को उकसाया। और स्वर्ण का आश्रय पा आतंकवाद ने डेरा डाल दिया। अनेक षड्यन्त्रों की रचना की गई। आज के दंगे, मानापमान और अपने अस्तित्व की रक्षा के निमित्त लोग स्वार्थ के वशीभूत हो क्या-क्या अनाचार नहीं कर उठते ? दल परिवर्तन की प्रक्रिया की कैसी लोचना की गई है : “आज आयेगा आतंकवाद का दल,/आपत्ति की आँधी ले आधी रात में। और इधर,/स्वर्ण-कलश के सम्मुख/बड़ी समस्या आ खड़ी हुई, कि अपने में ही एक और/असन्तुष्ट-दल का निर्माण हुआ है। लिये-निर्णय को नकारा है उसने/अन्याय-असभ्यता कहा है इसे, अपने सहयोग-समर्थन को/स्वीकृति नहीं दी है ।/न्याय की वेदी पर अन्याय का ताण्डव-नृत्य/मत करो, कहा है।/उस दल की संचालिका हैस्फटिक की उजली झारी/वह/प्रभावित है माटी के कुम्भ से! धीरे-धीरे/झारी की समझदारी/बहुतों को समझ में आने लगी है,/और झारी का पक्ष/सबल होता जा रहा है, अनायास।" (पृ. ४१९-४२०) इस प्रकार आत्म-सुरक्षा हेतु सेठ परिवार ने पृष्ठद्वार से पलायन कर, बाँसों के झुरमुट में, वनस्थली की हरीतिका की क्रोड में शान्ति एवं सुरक्षा की साँस ली । वंशमुक्ता एवं गजमुक्ता की विवेचना की गई । गजयूथ द्वारा सेठ परिवार का संरक्षण हुआ। विषधरों के ब्याज से क्रूरता धर्मों का विवेचन हुआ । नाग-नागिन संवाद । 'उरग' शब्द की व्यंजना: “पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं।/प्रभु से प्रार्थना है कि/अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आस्पद हैं,/पद-लिप्सा का विषधर वह भविष्य में भी हमें न सूंघे/बस यही भावना है, विभो !" (पृ. ४३४) इसमें प्रकृति के रौद्र रूप को दर्शाते हुए प्रलय दृश्य एवं आतंकवाद के परिणामस्वरूप राष्ट्र की दुर्गति का विवेचन हुआ है, जो सच है : “जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह,/ये आँखें अब/आतंकवाद को देख नहीं सकतीं।" (पृ. ४४१) वैसे सरल पंक्तियों द्वारा कवि ने युग सत्य को उद्घोषित कर डाला है। नदी के ब्याज से प्रवहमान् जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए कवि ने आगे उत्तम गिरि-शिखर से प्रादुर्भूत सरिता की कुटिल गति के विवेचन के साथ ही धरती शब्द की सुन्दर अभिव्यंजना भी की है, यथा :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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